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'दिनकर' का हास्य बोध

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हठ कर बैठा चांद एक दिन , माता से यह बोला सिलवां दो मां मुझे ऊन का , मोटा एक झिंगोला। सन-सन चलती हवा रात भर , जाड़े से मरता हूं। ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह , यात्रा पूरी करता हूं। आसमान का सफर , और यह मौसम है जाड़े का। अगर ना हो इंतज़ाम , दिलवा दो कुर्ता ही कोई भाड़े का। बेटे की सुन बात कहा माता ने , अरे सलोने! कुशल करे भगवान , लगे ना तुझको जादू टोने। जाड़े की तो बात ठीक है , पर मैं तो डरती हूं। कभी एक रूप में ना तुझको , देखा करती हूं। कभी एक अंगुल भर चौड़ा , और कभी कुछ मोटा। बड़ा किसी दिन हो जाता है , और किसी दिन छोटा। घटता-बढ़ता रोज़ किसी दिन , ऐसा भी करता है। नहीं किसी की आंखों को तू , दिखलाई पड़ता है। अब तू ही बता , नाप तेरी किस रोज़ लिवाएं। सी दें एक झिंगोला , जो हर रोज़ बदन में आए। ‘ चांद का कुर्ता ’, रामधारी सिंह दिनकर की   विद्रोही और राष्ट्रवादी कवि की छवि से यह कविता बिल्कुल मेल नहीं खाती। कहां  “  जो तटस्थ है समय लिखेगा उनके भी अपराध  “  और   “ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ”  जैसी उनकी रचनाएं और कहां यह सुखद बाल कविता। वीर र