मीडिया की एजेंडा सेटिंग थ्योरी का शिकार बन रहे हैं हम... और हमें मालूम तक नहीं


हांलाकि देश में इस समय इतने ज़्यादा ज़रूरी मुद्दे हैं कि ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर बहस की गुंजाइश नहीं होती लेकिन क्या किया जाए यह मीडिया का दौर है जहां उसी बात की बात होती है जिसे मीडिया हवा देता है, उन महत्वपूर्ण मुद्दों की नहीं जिन्हें मीडिया दबा देता है।

मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई कर चुके साथियों को इसकी जानकारी होगी। साल 1972 में मैक्सवेल मैककॉम्ब्स और डोनाल्ड शॉ  ने एक थ्योरी दी थी - एजेंडा सेटिंग थ्योरी। जिसके अनुसार मीडिया केवल खबरें ही नहीं दिखाता बल्कि चुनिंदा खबरों के ज़रिए यह एजेंडा भी सेट करता है कि जनता किस चीज़ को महत्वपूर्ण मानकर उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा सोचे और बात करें।

और ऐसा किया जाता है उस चुनिंदा खबर को सबसे ज्यादा समय और कवरेज देकर। एजेंडा सेटिंग थ्योरी के द्वारा मीडिया और न्यूज़रूम स्टाफ ना केवल यह तय करते हैं कि कौन सी खबर को महत्व मिलना चाहिए बल्कि जनता के बीच और मुद्दों को गौण भी बना देते हैं। यह भी तय कर देते हैं कि जनता को क्या सोचना चाहिए।


तो हुज़ूर आंखे खोलिए। आज की तारीख में इस एजेंडा सेटिंग थ्योरी का जमकर इस्तमाल हो रहा है। किसानों की आत्महत्या, बेरोजगारी, पानी की कमी, महिलाओं की सुरक्षा, आतंकवाद जैसे असल मुद्दे गौण हो गए हैं। आज हम सब चर्चा करते हैं तो इन बातों पर कि किस नेता ने किस दूसरे नेता के बारे में क्या बुरा कह दिया। कहां देशविरोधी नारेबाज़ी हुई। कहां गुरमेहर को ट्रोल किया गया, किसने ट्रोल किया, किसने किसके बारे में क्या बयान दिया.... ।

चाहें चैनल हों या अखबार सब एक से हैं। और अगर आप सोचते हैं कि आप मीडिया के इस खेल का हिस्सा बनने से खुद को बचा पाए हैं तो आप गलत सोचते हैं। एक बार सोशल मीडिया की दीवारें देख लीजिए जहां हम और आप खरी-खोटी पोस्ट करते हैं। यह साइटें भी ऐसी ही खबरों से रंग रही हैं जिनका एजेंडा मीडिया ने सेट करके दिया है।

आज आलम यह हैं कि महत्वपूर्ण खबरें केवल चैनलों द्वारा दिखाए गए न्यूज़ शतक या सौ खबरों के कैप्सूल में सुनाई देती हैं। इन्हें एयरटाइम या प्रिंटस्पेस ही नहीं मिलता और अगर मिलता भी है तो बहुत कम।

अब देख लीजिए जबसे चुनाव शुरू हुए हैं तब से देश में केवल चुनावी रैलियों और मतदान की बातें हो रही हैं क्योंकि देश का मीडिया केवल इसी पर केंद्रित हो गया है। पिछले दो दिनों से केवल गुरमेहर कौर की ट्रोलिंग का मुद्दा देश का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है, मानों इस मुद्दे का हल निकल गया तो देश की सारी समस्याओं का हल निकल जाएगा।

जागो देश के लोगों जागो। आज के सोशल मीडिया के दौर में, एजेंडा सेट करने वाले चैनलों के दौर में हम थिंक टैंक तो बन रहे हैं लेकिन ज़मीनी स्तर के मुद्दों पर काम करने के लिए प्रेरित नहीं होते। देश में कई ज़रूरी मुद्दे हैं, बिना बात की बात पर  एक दूसरे को गरियाना, धकियाना छोड़कर बेहतर होगा अगर हम कुछ ज़रूरी बदलावों पर बात करें। मीडिया के निर्दयी खेल का खिलौना मत बनिए। खासकर मास कम्यूनिकेशन वाले साथियों से तो ज़रूर यह अनुरोध है कि हम इन बातों से ऊपर उठें और वाकई में ज़रूरी मुद्दो को मुद्दा बनाएं। क्योंकि व्यर्थ की बहस का कोई अंत नहीं होता जिनमें कि मीडिया की चालों के चलते हम सब अटके हुए हैं।

सोशल मीडिया बहुत प्रभावी और महत्वपूर्ण प्लेटफार्म है, इसका प्रयोग नफरत फैलाने या एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए, उसके लिए न्यूज़ चैनल्स ही काफी हैं।



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