Posts

Showing posts from 2017

भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए 'जीत' लेकर आए हैं गुजरात के चुनाव परिणाम

Image
आज प्रधानमन्त्री ने जब गुजरात की जीत पर पार्टी कार्यकर्ताओं को सम्बोन्धित किया तो उनकी आवाज़ में वो स्वाभाविक खुशी, चहक और आत्मविश्वास गायब थे जो उनके भाषणों की पहचान है। उनकी आवाज़ में एक सोज था। लग रहा था जैसे मोदी जी किसी बड़ी लड़ाई को बमुश्किल जीत कर आए हैं और उन्हें खुद भी इस जीत का विश्वास नहीं हो पा रहा। बाद में उनका गुजरात के लोगों से माफी मांगना, 'विकास ही जीतेगा' जैसे नारे लगवाना और सारे गुजरातियों को जाति-समुदाय से ऊपर उठकर साथ आने को कहना, बयां करता हैं कि सच में यह उनके लिए भी बहुत बड़ी लड़ाई थी और कहीं ना कहीं उन्हें अपने होमटाउन में अपनी ज़मीन दरकने का अन्देशा भी था और शायद यहीं वजह रही कि उन्होंने इस कदर अपनी ताकत चुनाव प्रचार में झोंक दी, कि विकास की धार से भरे स्तरीय भाषणों में व्यक्तिगत मुद्दों और आरोप-प्रत्यारोपों के कारण स्तरहीनता सुनाई देने लगी। नरेन्द्र मोदी जी आत्ममुग्ध नेता ज़रूर हैं लेकिन उन्हें खुद की काबिलियत और जनता की समझदारी को लेकर कोई गुमान नहीं है। दो दशक तक गुजरात में रह चुकने के बाद वो गुजराती दिमाग और अक्लमन्दी को खूब जानते हैं, और यह

बहुत हैरान-परेशान करने वाले सवाल पीछे छोड़ता है प्रद्युम्न मर्डर केस

Image
8 सितम्बर 2017 को हुए रयान मर्डर केस की गुत्थी अब सुलझ चुकी है, कातिल मिल गया है और मोटिव भी मिल गया है। लेकिन पूरे देश को हैरान करने वाले इस हत्याकांड के सुलझने के साथ ही बहुत सारे ऐसे सवाल सामने आ खड़े हुए हैं जो आपको सोचने पर मजबूर करते हैं और एजूकेशन सिस्टम, स्टूडेन्ट्स साइकी और जांच एजेन्सी की ऐसी तस्वीरें सामने लाते हैं जो बेचैन करने वाली हैं। कातिल छात्र का व्यावहार : इस हत्याकान्ड का सबसे चौंकाने वाला पहलू। एक ग्यारहवीं के छात्र ने केवल इसलिए प्रद्युम्न का गला रेत दिया क्योंकि वो एक्ज़ाम फोबिया से ग्रसित था। उसे टालना चाहता था। वजह तो हैरान करने वाली है ही, लेकिन उससे भी ज़्यादा आश्चर्यचकित करने वाला है, हत्या को करने का तरीका और इसे अन्जाम देने के बाद छात्र का व्यावहार। उसने प्रद्युम्न को यह कहकर टॉयलेट में बुलाया कि उसे कुछ हैल्प चाहिए, और वहां पीछे से उसका गला चाकू से रेत दिया। वो चाकू जो उसने कुछ दिनों पहले ही खरीद कर रख लिया था। जिसे लेकर वो स्कूल आ रहा था। हत्या के बाद पहले उसने वो चाकू कमोड में फेंका और फ़िर वो पूरी तरह से कूल, नॉर्मल रहकर गार्डनर के पास गया और उ

'दिनकर' का हास्य बोध

Image
हठ कर बैठा चांद एक दिन , माता से यह बोला सिलवां दो मां मुझे ऊन का , मोटा एक झिंगोला। सन-सन चलती हवा रात भर , जाड़े से मरता हूं। ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह , यात्रा पूरी करता हूं। आसमान का सफर , और यह मौसम है जाड़े का। अगर ना हो इंतज़ाम , दिलवा दो कुर्ता ही कोई भाड़े का। बेटे की सुन बात कहा माता ने , अरे सलोने! कुशल करे भगवान , लगे ना तुझको जादू टोने। जाड़े की तो बात ठीक है , पर मैं तो डरती हूं। कभी एक रूप में ना तुझको , देखा करती हूं। कभी एक अंगुल भर चौड़ा , और कभी कुछ मोटा। बड़ा किसी दिन हो जाता है , और किसी दिन छोटा। घटता-बढ़ता रोज़ किसी दिन , ऐसा भी करता है। नहीं किसी की आंखों को तू , दिखलाई पड़ता है। अब तू ही बता , नाप तेरी किस रोज़ लिवाएं। सी दें एक झिंगोला , जो हर रोज़ बदन में आए। ‘ चांद का कुर्ता ’, रामधारी सिंह दिनकर की   विद्रोही और राष्ट्रवादी कवि की छवि से यह कविता बिल्कुल मेल नहीं खाती। कहां  “  जो तटस्थ है समय लिखेगा उनके भी अपराध  “  और   “ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ”  जैसी उनकी रचनाएं और कहां यह सुखद बाल कविता। वीर र

सृष्टि से पहले सत् नहीं था, असत् भी नहीं, छिपा था क्या, कहां किसने ढका था....: ऋगवेद के सूक्तों का हिन्दी अनुवाद है यह अमर गीत

Image
वर्ष 1988 में दूरदर्शन पर हर रविवार की दोपहर श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित एक सीरियल प्रसारित हुआ करता था -'भारत एक खोज', जो कि पंडित जवाहरलाल नेहरु द्वारा 1946 में लिखित किताब 'डिस्कवरी ऑव इंडिया' पर आधारित था। इसके 53 एपिसोड्स में भारत के 5000 सालों के इतिहास का फिल्मांकन किया गया था। लेकिन यहां हम सीरियल की बात नहीं करेंगे। बल्कि इस लेख का उद्देश्य इस सीरियल के शीर्षक गीत- "सृष्टि से पहले सत् नहीं था..." का महत्व सामने लाना है। सनातन धर्म के सबसे आरम्भिक स्त्रोत, ऋगवेद के संस्कृतनिष्ठ सूक्तों से शुरू होने वाले, इस शीर्षक गीत में गूंजने वाली संस्कृत, बेहद क्लिष्ट होने के बावजूद कानों में रस घोलती है और सुनने वाले को एक अलग श्रव्य रस से परिचित कराती है। लेखक व अनुवादक वसंत देव के बोल, संगीतकार वनराज भाटिया का संगीत और सुरीला समूह गायन वो विशेषताएं हैं जो इस गीत को समय और काल के परे लोकप्रिय बनाती हैं। पर ऐसा क्या खास है इसके बोलों में कि जब यह गीत कानों में गूंजता है तो सुनने वाले को एक अलग अनुभूति देता है? क्या आप जानते हैं कि यह पूरा गीत दरअसल

लद्दाख.. यानि ठण्डे मरुस्थल का सफर...

Image
" इस आठ जून की सुबह को जब हमारे कदम लद्दाख के रिनपोछे हवाई अड्डे पर पड़े तो हम दिल्ली के साथ-साथ उसकी गर्मी को भी पीछे छोड़ ही चुके थे। यहीं नहीं, राजधानी की चौड़ी सपाट सड़को को, दोनों तरफ दिखती सीमेंट की इमारतों को और सड़को पर दौड़ते वाहनों से उठते धुंए को भी बहुत पीछे छोड़ आए थ। सामने थे कत्थई पहाड़ और उन पर अठखेलियां करते बादल, बलखाती पगडंडीनुमा सड़कें और शांत, सुरम्य वातावरण।   जैसा कि निर्देशित था, पहले दिन होटल में आराम करने और स्थानीय बाज़ार की सैर करने के बाद दूसरे दिन जब हम घूमने निकले तो हमारा पहला पड़ाव था लामायुरू मॉनेस्ट्री। जो लेह से लगभग 120 किमी दूरी पर, लेह-श्रीनगर हाइवे पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग एक (NH-1) है। बलखाती सड़क के एक तरफ सुनहरे, पीले और भूरे पहाड़ों के दर्शन हो रहे थे तो दूसरी तरफ थी बलखाती सिन्धु (Indus) नदी। जहां सूरज की रौशनी पड़ रही थी वहां से उजले, जहां छाया थी वहां से धुंधले और चोटियों पर धवल छटा.. पहाड़ों के इतने रंग थे मानों किसी चित्रकार की बनाई तस्वीर हो। सिन्धु और झंस्कार नदी का संगम हम दोनों तरफ के सुंदर न

भारत के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले असली अपराधी कौन हैं?

Image
भारत देश के बच्चों की पढ़ाई, उन्हें योग्य बनाने से लेकर उनसे कई महत्वपूर्ण प्रवेश परीक्षाएं दिलवाने का काम सीबीएसई करती है। पूरे देश में स्कूलों को मान्यता देना, विभिन्न कक्षाओं के लिए कोर्स निर्धारित करना, स्कूलों के ऑडिट करना, किताबें और स्टडी मैटीरियल तैयार करवाना.. जैसे बहुत से महत्वपूर्ण काम इस एकमात्र संस्था के जिम्मे हैं । साथ ही सीबीएसई दुनिया की सबसे बड़ी एक्ज़ाम्स आयोजित कराने वालीं एकमात्र संस्था है जो पूरे देश के सीबीएसई स्कूलों में दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएं आयोजित कराने के अलावा नेट (NET), नीट (NEET), आईआईटी जी (JEE) और सीटेट (CTET) जैसी प्रतियोगी/प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन भी कराती है।  यानि कम शब्दों में कहें तो भारत के बच्चों का भविष्य, पढ़ाई, करियर सबकुछ इस सीबीएसई संस्था के हाथों में हैं जोकि एचआरडी मिनिस्ट्री के अन्तर्गत आती है। यहां सीबीएसई की महिमा का गुणगान यूंही नहीं किया गया है। इसके पीछे कई कारण है। पर पहले आज के दो सबसे ज्वलंत सवालों को देखते हैं: पहला सवाल- प्राइवेट स्कूलों द्वारा लगातार मनमाने ढंग से बढ़ाई जा रही फीस, एनसीईआरटी की किताबें ना लागू

बिन दु:ख सब सून

Image
आप मानें या ना मानें, एक समय ऐसा था जब इस धरती पर हर खास-ओ-आम को भगवान बनने का मौका मिलता था। यह वो समय था जब भगवान दूर स्वर्ग में नहीं रहते थे बल्कि यहीं ज़मीन पर विचरण करते थे। तब दरअसल देवलोक, धरतीलोक या पाताललोक जैसी अलग अलग जगहें थी ही नहीं। इसी धरती पर पाताल भी था और आकाश के बादल भी। सब एकसार था, एक साथ था। प्रभु हर इंसान से मिलते थे, उसके दुख-दर्द सुनते थे, तकलीफें दूर करते थे और खुशियों में शरीक होते थे, और साथ ही सबको भगवान बनने का अवसर भी देते थे। आम लोगों में से ही कईं अपनी किसी खूबी के चलते भगवान बनना चुन लेते थे। जैसे अगर किसी के पास धन-दौलत बहुत ज़्यादा थी, तो वो मनी गॉड बन जाता था। किसी की दुआओं में असर रहा हो तो ब्लैसिंग गॉड, कोई लकी है तो वो गॉड ऑव लक। इसी तरह क्लोथ गॉड, फूड गॉड, वॉटर गॉड, एम्यूज़मेन्ट गॉड जैसे हर तरह के गॉड्स हुआ करते थे। गॉड बनने का तरीका भी अलग था। साफ-सुथरा, नफासत भरा और पूरी तरह एपॉलिटिकल। दक्षिण दिशा में एक खूबसूरत बादलों का पहाड़ था। स्लेटी और नीले रंग का, जिस पर सूरज की शुभ्र और पावन छाया पड़ा करती थी। इस पहाड़ की चोटी पर था पैराडाइज़

जनता को कमअक्ल समझने वाले ध्यान दें...

Image
चुनावों के नतीजे आ चुके हैं। शायद अब विपक्षी नेताओं और खासकर खुद को तुर्रम खां समझने वाले पत्रकारों को समझ आए कि आज की जनता निर्णय लेना जानती है, बेआवाज़ लाठी से जवाब देना जानती है। मुझे उम्मीद है कि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भाजपा की ज़बरदस्त जीत और पंजाब में अकाली दल और भाजपा गठबंधन की करारी हार के बाद पत्रकार और नेता यह कहना छोड़ देंगे कि ऐसा पोलेराइजेशन के कारण हुआ या गधे के बयानों के कारण हुआ या मार्केटिंग के कारण हुुआ, या भाजपा की बेहतर रणनीति के कारण हुआ या फिर क ार्यकर्ताओं की मेहनत के कारण हुआ... या फिर इसलिए हुआ क्योंकि भाजपा ने सवर्णों के साथ दलितों औऱ जाटवों का भी दिल जीता, मायावती के लोगों को तोड़ लिया..... यह कारण और इस तरह के बहाने ज़िम्मेदार पत्रकारों और नेताओं के लिए वो 'सिल्क रूट' बन चुके हैं जिन पर चलकर उन्हें लगता है कि वो हर हाल में नतीज़ों तक पहुंच ही जाएंगे। आंखे खोलिए महोदय और कम से कम अब तो जनता की समीक्षात्मक प्रवृत्ति और निर्णय क्षमता पर विश्वास करना सीखिए। जनता ना तो गूंगी है, ना बहरी है और बेवकूफ तो बिल्कुल नहीं.... जो आपकी स्पूनफीड

मीडिया की एजेंडा सेटिंग थ्योरी का शिकार बन रहे हैं हम... और हमें मालूम तक नहीं

Image
हांलाकि देश में इस समय इतने ज़्यादा ज़रूरी मुद्दे हैं कि ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर बहस की गुंजाइश नहीं होती लेकिन क्या किया जाए यह मीडिया का दौर है जहां उसी बात की बात होती है जिसे मीडिया हवा देता है, उन महत्वपूर्ण मुद्दों की नहीं जिन्हें मीडिया दबा देता है। मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई कर चुके साथियों को इसकी जानकारी होगी। साल 1972 में मैक्सवेल मैककॉम्ब्स और डोनाल्ड शॉ  ने एक थ्योरी दी थी - एजेंडा सेटिंग थ्योरी। जिसके अनुसार मीडिया केवल खबरें ही नहीं दिखाता बल्कि चुनिंदा खबरों के ज़रिए यह एजेंडा भी सेट करता है कि जनता किस चीज़ को महत्वपूर्ण मानकर उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा सोचे और बात करें। और ऐसा किया जाता है उस चुनिंदा खबर को सबसे ज्यादा समय और कवरेज देकर। एजेंडा सेटिंग थ्योरी के द्वारा मीडिया और न्यूज़रूम स्टाफ ना केवल यह तय करते हैं कि कौन सी खबर को महत्व मिलना चाहिए बल्कि जनता के बीच और मुद्दों को गौण भी बना देते हैं। यह भी तय कर देते हैं कि जनता को क्या सोचना चाहिए। तो हुज़ूर आंखे खोलिए। आज की तारीख में इस एजेंडा सेटिंग थ्योरी का जमकर इस्तमाल हो रहा है। किसानों की आत्मह

'मन की बात'... लेकिन मोदी जी की नहीं, फुटबॉल की :-)

Image
बहुत दिनों से यह सवाल जीतू-मीतू के मन में था। जीतू-मीतू...अरे वो जुड़वा स्पोट्स जूते, जिन्हें पहनकर रोज़ अभिषेक अपने पांच दोस्तों के साथ फुटबॉल खेलने जाता है। दोनों ही बहुत प्यारे हैं। भाई हैं, बिल्कुल एक जैसे, आईडेंटिकल ट्विन्स। एक दूसरे की मिरर इमेज। एक दायां और बायां...। खैर यह कहानी जीतू-मीतू की नहीं हैं, यह कहानी है उस गोल, प्यारी सी बड़ी फुटबॉल की, जिसे लेकर इन जुड़वां जूतों के मन में सवाल उठा है। हां तो आज जीतू ने इस फुटबॉल से पूछ ही डाला- एक बात बताओ डीयर, रोज़ हम दोनों को अपने पैरों में डालकर अभिषेक तुम्हें किक मारता हुआ मैदान तक ले जाता है, वहां उसके सारे दोस्त भी तुमको इतना मारते हैं, ज़मीन पर पटकते हैं, लेकिन फिर भी तुम हमेशा खुश कैसे रहती हो, हमेशा उछलती कूदती रहती हो... कैसे? फुटबॉल हंस पड़ी..। अरे भई खुश क्यों ना होऊं। मेरा तो काम ही पैरों में रहना है, मेरा नाम ही फुटबॉल है यानि पैर से खेले जाने वाली बॉल। तो अगर मुझे बच्चे पैरों से मारकर खेलते हैं तो इसमें खराब लगने जैसा क्या है...? बल्कि मैं तो अभिषेक की शुक्रगुज़ार हूं कि उसने स्पोर्ट्स शॉप में रखी इतनी सारी फ