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Showing posts from 2016

ये रहीं प्रधानमंत्री के देश के नाम संबोधन की खास बातें...

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देश के केवल 24 लाख लोग मानते हैं कि उनकी सालाना आय 10 लाख से ज्यादा है।  कष्ट झेलना आप सबके त्याग की मिसाल। लोग मुख्यधारा में आना चाहते हैं। ईमानदारों को सुरक्षा देना प्राथमिकता।  अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में वापस आया काला धन।   कहीं कहीं सरकारी कर्मचारियों ने गंभीर अपराध किये हैं और आदतन फायदा उठाने का निर्लज्ज प्रयास भी हुआ है, इन्हें बख्शा नहीं जाएगा।  बैेंको से आग्रह- बैंक अब गरीबों को मध्य में रखकर अपने कार्य का आयोजन करें। बैंकों के पास इतना धन कभी नहीं आया था। निम्न मध्यम वर्ग के लिए नीतियां बनाएं। नई योजनाएं- प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत शहरों में गरीबों को नए घर देने के लिए दो नई स्कीमें- 9 लाख तक के कर्ज पर 4 फीसदी की छूट, 12 लाख के कर्ज पर 3 फीसदी तक की छूट। गांव में 33 फीसदी ज्यादा घर बनाए जाएंगे। 2017 में गांव में लोग अगर घर का विस्तार करना चाहते हैं तो उन्हें 2 लाख रुपए तक के कर्ज में 3 फीसदी तक की छूट। रबी की बुआई में 6 फीसदी वृद्धि  हुई। जिन्होंने सहकारी बैंको से कर्ज़ लिया था उन किसानों के लिए- 60 दिन का ब्याज सरकार देगी, उनके अकाउंट में जाएगा।  तीन

ओला कैब ड्राइवर नसीम खान साहब ने कैब ड्राइवरों के प्रति मेरा नज़रिया बदल दिया...।

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यह हैं ओला कैब के ड्राइवर नसीम खान साहब। मूलत: उत्तर प्रदेश के बलिया, गाज़ीपुर निवासी नसीम फिलहाल दिल्ली के साकेत स्थित जेजे नगर के पास बने सिंगल रूम डीडीए फ्लैट में अपनी बीवी और एक छोटी बच्ची के साथ रह रहे हैं। इनका भाई भी इनके साथ रहता है जिसे यह इंजीनियरिंग करा रहे हैं। नसीम बलिया में रह रहीं अपनी मां और एक छोटी बहन के लिए हर महीने पैसे भी भेजते हैं। नसीम खान, नसीम खान साहब इसलिए हैं कि इन्होंने यह साबित किया है कि इंसान के पेशे से उसकी सीखने और दुनिया जानने की चाह पर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ता और ना ही उसके सपने और ख्वाहिशे छोटी हो जाती है।  अगर इंसान वाकई में खुद को जागरूक करना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है तो परिस्थितियां उसके आड़े नहीं आती। आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए गांव और अपने खेत छोड़कर दिल्ली आए नसीम खुद एक जागरूक इंसान हैं जो हर मुद्दे पर अपनी बेबाक और पूर्वाग्रह रहित राय रखते हैं। इनकी भाषा भी काफी अच्छी है और यह बहुत आसानी से अंग्रेजी के शब्द भी इस्तमाल करते हैं। इनसे बात करते समय आपको बिल्कुल नहीं लगेगा कि आप किसी टैक्सी ड्राइवर से बात कर रहे हैं। नसीम जानते

भारत कैश से लैस हुआ तो लुप्त हो जाएंगी यह कलाएं, रीतियां और रस्म-ओ-रिवाज़

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मोदी जी का क्या है, बड़ी बेफिक्री से नवम्बर की एक रात नेशनल चैनल पर नुमायां हो गए और जारी कर दिया 500 और 1000 के नोटों के रद्दी हो जाने का ऐलान। पूरा देश सन्न... यह क्या कर गए प्रधानमंत्री जी। कमाल की बात यह है कि पूरा का पूरा 9 नवम्बर का दिन निकल गया, न एक भी विपक्षी दल का बयान आया और ना किसी न्यूज़ एंकर को इस फैसले के विरुद्ध बोलते सुना गया। भई सद्मे से उबरने में वक्त तो लगता है ना...। लोगों को लगा था कोई नहीं, यह नोट जा रहे हैं तो क्या नए आ जाएंगे, और कुछ दिनों में नए नोटो से वहीं पुराना खेल, पुरानी आदतें शुरू कर देंगे। गृहणियां जिनका सालों का जमा धन एक ऐलान के झटके में निकल गया, सोच रही थीं कि उनकी कला तो ज़िन्दा है, नोट फिर जमा कर लेंगी। लेकिन हाय रे मोदी जी के मन की बात ना जानी उन्होंने..। प्रधानमंत्री जी तो कैश से लैस इकोनॉमी लागू करने की मंशा रखते हैं। यह तुगलकी फरमान जारी करने से पहले ज़रा सोच तो लिया होता प्रधानमंत्री जी कि जो कैश ही ना रहा तो हिन्दुस्तान की संस्कृति में रची-बसी बहुत सी कलाएं और रस्म-ओ-रिवाज़ तो लुप्त ही हो जाएंगे। आपके तो आगे-पीछे कोई है नहीं, ना ही आ

“कम्पार्टमेन्ट के आखिरी छोर की दीवार के पास शव एक के ऊपर एक लदे पड़े थे। ट्रेन के शौचालय जवान शवों से भरे थे जो सुरक्षित स्थान समझकर वहां छिपे होंगे...” – ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ के अंश…

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'ट्रेन  टू पाकिस्तान' खुशवंत सिंह द्वारा लिखी गई सबसे ज्यादा प्रसिद्ध किताब मानी जाती है, जिसमें उन्होंने देश विभाजन के समय सीमावर्ती गांवो के लोगों में धीरे-धीरे पनप रहे ज़हर, लोगों की दशा और मनोस्थिति का बेहतरीन और सजीव चित्रण किया है। इस उपन्यास की कहानी संक्षेप में इस प्रकार है-1987 की कहानी है जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन होने वाला है। ऐसे में सीमा पर स्थित एक शांत गांव मनो माजरा, जिसकी पूरी दिनचर्या गांव के स्टेशन से सुबह-शाम और रात में गुजरने वाली ट्रेनों पर आधारित हैं, में अचानक स्थिति बदल जाती है। गांव के निवासियों तक सीमा पार रहने वाले मुस्लिमों द्वारा अन्य धर्मों के लोगों को लूटने, बेइज्जत करने और मारने के किस्से पहुंचने लगते हैं और तनाव बढ़ने लगता है। मामला तब और गंभीर हो जाता है पाकिस्तान से एक मुर्दों की ट्रेन आती हैं जिसमें एक भी व्यक्ति जीवित नहीं होता। सारे हिन्दुओं को सीमापार के मुसलमान मौत के घाट उतार चुके थे। इस हादसे के बाद गांव में लगातार बढ़ते तनाव और बिखरती कानून व्यवस्था से गुस्साए लोग इस बात का बदला लेने के लिए भारत से मुस्लिमों को लेकर पाकिस्त

क्या आपने बन्ना-बन्नी, लांगुरिया और खेल के गीतों का मज़ा लिया है. लेडीज़ संगीत का मतलब केवल डीजे पर डांस करना नहीं है..

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आजकल शादियों में लेडीज़ संगीत के नाम पर जो डीजे लगा दिया जाता है और सब लोग अपनी पसंद के गाने चुन-चुन कर उस पर डांस कर लेते हैं, वो तो संगीत है ही नहीं जनाब। लेडीज़ संगीत का असली मज़ा तो ढोलक की थाप पर सुर लेते बन्ने बन्नी, लागुंरिया, खेल और गालियों से भरे गानों में आता है। यकीन मानिए आप कितने भी अपमार्केट होने का दावा कर लें, पहले से रिहर्सल कर के डीजे के गानों पर डांस कर लें, लेकिन जब तक इन देसी लोकगीतों का मज़ा नहीं लेगें, लेडीज़ संगीत का मज़ा पूरा नहीं होगा। इन गानों में इतना अपनापन है, इतनी आम बोलचाल की भाषा और मज़ेदार छेड़खानियां हैं कि आप एक बार इन्हें सुनेंगे तो वाह-वाही किए बगैर नहीं रह पाएंगे। इन गानों की खासियत है इनमें सारे नातेदारों और रस्मों को शामिल किया जाना और इनके चुटीले बोल। जैसे कि आपस में गॉसिप करते हुए एक दूसरे से छेड़छाड़ की जा रही हो। शादी के खुशनुमा माहौल में दूल्हा-दुल्हन यानि बन्ना-बन्नी से लेकर, समधी -समधन, चाचियां, मामियां, ताईयां, भाभियां, देवर, देवरानियां, जेठ- जेठानियां.. किसी को भी इन गानों में बख्शा नहीं जाता। सबका तसल्ली से मज़ाक बनाया जाता है,

तस्वीरों में : स्वीमिंग पूल पर छिटकी छठ पर्व की छठा

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मन चंगा तो स्वीमिंग पूल में गंगा...। मेट्रो शहरों की आधुनिक सोसाइटियों  के आस-पास ना तो नदियां हैं, ना तालाब और ना ही पोखर... लेकिन अपने राज्य और गांव को छोड़कर यहां बस चुके पूरबनिवासी ज़रूर हैं। यह शायद उनका अपने राज्य, संस्कृति और त्यौहारों से प्यार ही हैं, कि सुविधाओं के अभाव में भी लोग छठ पर्व मनाने और सूर्य भगवान को अर्घ्य देने का साधन ढूंढ ही लेते हैं। कहते हैं ना, जहां चाह, वहां राह...। यह बिहार के रहवासियों का छठ पर्व के प्रति उत्साह ही है कि सोसाइटी के स्वीमिंग पूल को ही पवित्र पोखर का रूप दे दिया गया । छठ पर्व मनाते लोग यहां स्वीमिंग पूल में खड़े होकर अस्ताचलगामी और उदयमान सूर्य को अर्घ्य देते नज़र आए। आप भी इन रंगीन तस्वीरों के ज़रिए स्वीमिंग पूल में मनते छठ उत्सव का नज़ारा लीजिए...   और स्वीमिंग पूल पर लग गया छठ का मेला नहाय खाय और खरना के बाद अस्ताचलगामी सूर्य भगवान को अर्घ्य देने पहुंचे भक्त ढोल-नगाड़े का इंतज़ाम, ताकि पूजा में कोई कमी ना रह जाए घर के बढ़े-बूढ़ों की कुशल देखरेख में सम्पन्न होती छठ पूजा मौसमी फलों, केले, दीपक, नारियल, ठेकुएं औ

कहीं बागों में बहार हैं, कहीं बाग उजाड़ है...

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गज़ब! 4 नवंबर, 2016 का एनडीटीवी प्राइम टाइम तो सचमुच अद्भुत था, अकल्पनीय, अविश्वस्नीय.. पूरे देश में जिस जिसने यह प्राइम टाइम देखा है उनसे विनती हैं कि आप इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग पैन ड्राइव में लेकर जेब में रख लीजिए ताकि अगर किसी चोर को भी मिलें तो कम से कम वो नाटककार बनना सीख जाए...। बागों में बहार भी है...(सरकार के लिए) और बाग उजाड़ भी हैं ( एनडीटीवी).. सुबह से एनडीटीवी पर बैन के खिलाफ जो पूरे देश के मीडिया को एकजुट करने की अपीलें चल रहीं थीं और जिस जोर शोर से पूरे देश  (यहां गौरतलब है कि एनडीटीवी का देश प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एडीटर्स गिल्ड और कुछ बुद्धिजीवियों से पूरा हो जाता है) द्वारा इस बैन का विरोध करने संबंधी स्क्रॉल और खबरें दिखाईं जा रही थीं, उसे देखकर लगा कि ज़रूर रवीश जी कुछ ज़बरदस्त प्राइम टाइम लेकर आएंगे... लेकिन.... हर कानूनी विकल्प की तलाश करने का दावा करने वाले एनडीटीवी का यह प्राइम टाइम देखकर एक बात तो सिद्ध हो गई... कि अब कानून को अपनी आंखों पर बंधी पट्टी उतार देनी चाहिए। क्योंकि अब जिरहों, वादों, प्रतिवादों से खुद का बचाव करने का दौर चला गया, अब तो कान

और महाराजा रीसाइकिल सिंह की आंखे खुल गईं...

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यूं तो डस्टबिनाबाद और रीसाइक्लाबाद दोनों ही राज्य पास पास थे। एक दूसरे के पड़ौसी। लेकिन रीसाइक्लाबाद राज्य के महाराजा रीसाइकिल सिंह को डस्टबिनाबाद राज्य और वहां के नागरिक- जो डस्टबिन कहलाते थे, बिल्कुल नहीं भाते थे। रीसाइक्लाबाद के लोग हमेशा ही डस्टबिनाबाद राज्य को खुद से कमतर और बेकार माना करते थे और उन्हें यह हरगिज़ पसन्द नहीं था कि उनके यहां से कोई भी डस्टबिनाबाद के लोगों से दोस्ती करे। दूसरी तरह डस्टबिनाबाद के नरेश कूड़ामल एक नम्र, भावुक एवं अच्छे दिल के इंसान थे जिन्हें अपने राज्य और प्रजा से बेहद प्यार था। उनका राज्य था भी अच्छा जिसके तीन तरफ कूड़े के ऊंचे पहाड़ थे और एक तरफ रीसाइक्लाबाद की सीमा। हालांकि खुद के राज्य को लेकर पड़ौसी राज्य रीसाइक्लाबाद का नज़रिया उन्हें कभी पसंद नहीं आया लेकिन फिर भी वो कुछ कहते नहीं थे। हमेशा खुश रहते थे। पृथ्वी के अन्य लोग जब भी डस्टबिनाबाद के पास से गुज़रते तो बड़ी हिकारत भरी नज़रों से उस राज्य को देखा करते थे। कोई उन्हें पसंद नहीं करता था। लेकिन इस सबके बावज़ूद नरेश कूड़ामल प्रसन्न रहते और अपने काम में लगे रहते।   पर एक दिन हद

"जनरल के नहीं होते तो आज सीआरपीएफ के जवान होते.." आरक्षण के अवसर और ऊंची जाति में पैदा होने की पीड़ा

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यह आगरा के रोहित तिवारी हैं, उम्र 21 साल, जाति से पंडित। आपको हैरानी होगी लेकिन ऊंची जाति में पैदा होने का दंश रोहित के चेहरे और आवाज़ में साफ पढ़ा जा सकता है। यूं तो इनका आगरा में पेठे का हब माने जाने वाले नूरी गेट में अपना पुश्तैनी पेठे का कारखाना हैं, लेकिन आज के मार्केटिंग और दिखावे के दौर का आलम यह है कि पेठा क्वालिटी से नहीं ब्रांड से बिकता है जिसके चलते अपना खुद का बढ़िया पेठा बनाने के बावजूद रोहित के पेठों को अ च्छा दाम नहीं मिलता। यही वजह है कि बड़ा भाई एमबीए करके नौकरी कर रहा है और रोहित सरकारी नौकरी नहीं मिलने की वजह से अपनी फैक्ट्री को चलाने के लिए मजबूर हैं। जब हमने इस मजबूरी का कारण पूछा तो रोहित ने बोला "नाम में जनरल जुड़ा था, जनरल के नहीं होते तो आज सीआरपीएफ के जवान होते।" रोहित के स्वर में अपनी जनरल कैटेगरी के लिए इतनी हिकारत थी कि कोई भी हैरान रह जाता। कारण- उसका सराकारी नौकरी करने का बहुत मन था। सीआरपीएफ के लिए आवेदन किया था, जहां फिज़िकल फिटनेस टेस्ट, मेडिकल टेस्ट सब पास कर लिया। अन्त में एक्ज़ाम हुआ जिसमें जनरल कैटेगरी की कटऑफ 83.8 परसेंट थी जब

अगर कन्हैया को ज़मानत मिल जाने से कुछ लोगों को जीत का अहसास हो रहा है तो ज़रा पढ़ लीजिए क्या कहता है जज प्रतिभा रानी का बेल ऑर्डर ..

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  "देश विरोधी नारे लगाना नहीं है फ्रीडम ऑफ स्पीच" , "यह एक तरह का इन्फेक्शन है जिसे महामारी बनने से पहले निंयत्रित किया जाना ज़रूरी है"  "अगर इन्फेक्शन फैलकर गैंगरीन बन जाए तो उस भाग को काटना ही एकमात्र इलाज बचता है " कन्हैया के समर्थन में उतरे जेएनयू छात्र-छात्राएं, अध्यापक, राजनीतिक दल और उन्हें मासूम बताने वाले कुछ चैनल्स भले ही यह सोच कर खुश हो लें कि कन्हैया को ज़मानत मिल गई है और यह उनकी जीत है, लेकिन सच्चाई यह है कि हाईकोर्ट जज प्रतिभा रानी द्वारा कन्हैया को दिए गए बेल ऑर्डर में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो स्पष्ट करती हैं कि कन्हैया को क्लीन चिट नहीं दी गई है।  ऑर्डर में साफ तौर पर लिखा गया है कि देशविरोधी नारे लगाने को फ्रीडम ऑफ स्पीच के तौर पर नहीं देखा जा सकता। जज ने इस तरह के माहौल के लिए जेएनयू टीचर्स को भी जिम्मेदार माना है और उन्हें यूनिवर्सिटी में अच्छा माहौल बनाने की ताकीद की है। जज ने उन सभी अन्य छात्र-छात्राओं को भी अपना आचरण सुधारने की सलाह दी है जिनके नारे लगाते और अफज़ल गुरू के पोस्टर पकड़े फोटोग्राफ्स रिकॉर्ड पर हैं। यह

देशभक्त ऐसे हों तो देश को देशद्रोहियों की ज़रूरत क्या है... रविश जी को बौद्धिक आतंकवाद फैलाने के लिए साधुवाद

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सच में रविश जी कमाल कर दिया आपने, रिपोर्टिंग और एंकरिंग का एक नया आयाम छूने के लिए आपने जो कोशिश की है इसे इलैक्ट्रॉनिक जर्नलिज़्म में आने वाली पीढ़िया भी भुला नहीं पाएंगी। इस अंधेरे ने हमें आवाज़े सुनवाई ऐसी आवाज़े जो हमें उद्वेलित करती हैं, विवेक खोने को मजबूर करती हैं, वो सारी आवाज़े जो यह साबित करती हैं कि देशद्रोह का विरोध करने वाले हम सब भारतवासी और चंद न्यूज़ चैनल्स गलत हैं और आप सही। कितनी आसानी से आपने अपनी बात हम पर सबके मन में बैठा दी और साफगोई और निष्पक्ष होने की वाह-वाही भी लूट ली। रविश जी आपके इस कार्यक्रम में बहुत आवाज़ो को जगह मिली लेकिन कुछ आवाज़े आपने छोड़ दी. मैं यहां केवल उन आवाज़ों का ज़िक्र करना चाहती हूं। -आपके कार्यक्रम में उन कुछ लोगों की आवाज़े तो थी जिन्होंने कन्हैया को बिना जांच पूरी हुए देशद्रोही साबित कर दिया, लेकिन वो आवाज़े कहां थी जिन्होंने बिना जांच पूरी हुए कन्हैया को निर्दोष करार दे दिया और जिनमें एक आवाज़ आपकी भी है। -आपने उन आवाज़ो की बात तो की जो यह कहती हैं कि कन्हैया की रिहाई की मांग करने वाले केवल लेफ्ट छात्र नहीं, बल्कि अन्य भी हैं

जानलेवा पढ़ाई

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लगातार बढ़ रहे हैं छात्र-छात्राओं द्वारा आत्महत्या करने के मामले मां-बाप की अपेक्षाओं के चलते गहरे मानसिक दवाब में जी रहे हैं किशोर 2014 में 2403 छात्र-छात्राओं ने फेल होने के डर से मौत को गले लगाया गाज़ियाबाद के मशहूर कॉलेज से बीटेक कर रही रितुपर्णा की दिनचर्या देखें- सुबह 8 बजे वो सोकर उठती है और 9 बजे तक तैयार होकर, नाश्ता वगैरह करके कॉलेज चली जाती है। लौटते हुए लगभग साढ़े चार-पांच बज जाते हैं। आने के तुरंत बाद रितु खाना खाकर सो जाती है और इसके बाद रात को नौ बजे उठकर सुबह चार बजे तक ‘ शांति में ’ पढ़ाई करती है। सुबह चार बजे सोने के बाद वो सीधे आठ बजे स्कूल जाने के समय पर उठती है। इम्तहान के दिनों में यह रुटीन बदल जाता है, कॉलेज से 12-1 बजे तक आ जाने के बाद रितु 5 बजे तक दिन में भी पढ़ाई करती है।  यहीं नहीं छुट्टी के दिन रितुपर्णा स्पेशल क्लासिस के लिए अपने सर के पास भी जाती है। जब हमने उससे पूछा कि इतनी ज्यादा पढ़ाई करने की क्या आवश्यकता है जबकि यह कोई आईआईटी या मेडिकल की तैयारी नहीं है, तो उसका कहना था कि कॉलेज की पढ़ाई और कोर्स बहुत ज्यादा है। पापा