सड़कों पर कान्हा की झांकी बनाकर खूब पैसा कमाते हैं बच्चे...


   
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वो ज़माने और थे जब हम कृष्ण जन्माष्टमी के दिन मिट्टी के खिलौनों, रेता, लकड़ी के बुरादे और कागज़ का इस्तमाल करके घर घर में झांकिया बनाया करते थे। पहले इसे हिंडोला सजाना भी कहा जाता था, क्योंकि झांकी के बीचो-बीच एक छोटी सी लकड़ी या मिट्टी की पालकी में लड्डू गोपाल जी को खीरे में रखा जाता था और तमाम के तमाम लोग जो झांकी देखने आते थे उस झूले को झुलाते थे। तब झांकी की तैयारियां महीनों पहले की जाती थी। बाज़ार से मिट्टी के खिलौने जैसे गुजरिया, सिपाही, टैंक, बाराती, गाय, घोड़ा, हाथी, मोर से लेकर हनुमान जी, सरस्वती जी, माखनचोर आदि खरीदे जाते थे। झांकी में एक जगह मंदिर बनता था, तो एक जगह चिड़ियाघर... कहीं सड़क होती थी और कहीं हवाई अड्डा.. कहीं गांव तो कहीं शहर..थाली या टबों में पानी भर कर स्टीमर भी तैराया जाता था.. तब कमरों में जन्माष्टमी के दिन पूरा शहर बसाया जाता था। नंदलाल के जन्मोत्सव की खुशी में.. पूरी कॉलोनी या गली मोहल्लों के परिवार बारी बारी से सब घरों में झांकियां देखने जाते थे और इन्हें लगाने वाले अपनी झांकी की तारीफ सुनकर फूले नहीं समाते थे।

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झांकी खतम होते ही सारे खिलौने, गत्ते के डब्बों में भर कर ताड़ या दुछत्ती पर पहुंचा दिए जाते थे ताकि अगले साल की झांकी के लिए निकाले जा सकें। हर साल डिब्बे में कुछ खिलौने बढ़ जाते थे और हर तीन चार सालों में एक डिब्बा और जुड़ जाया करता था... और जन्माष्टमी पर जिस घर में सबसे ज्यादा खिलौने वहीं, सबसे ज्यादा अमीर.. धीरे-धीरे कमरे छोटे होने लगे, कुछ मिट्टी के खिलौने गायब हो गए और कुछ टीवी का प्रभाव.. पहले जहां मंदिरों में फूल-बंग्ले बनते थे, वहां झांकियां भी सजने लगी और फिर मंदिरों से निकलकर यह झांकिया सड़कों पर पहुंच गईँ।

और शहरों का तो मालूम नहीं लेकिन दिल्ली की जन्माष्टमी की झांकियां सड़क पर ज़रूर पहुंच चुकी है। झांकियां अभी भी बनती हैं, बच्चे ही बनाते हैं, बहुत सुन्दर बनाते हैं.. केवल उनको बनाने का उद्देश्य बदल गया है। वो तारीफ पाने की बजाय, दो तीन घंटे में ईज़ी मनी कमाने में बदल गया है...

 जन्माष्टमी के दिन कॉलोनी के बच्चे चार-पांच टोलियां बना लेते हैं और पार्क की बाउन्ड्री के पास एक जगह चुन लेते हैं। हर समूह में आठ से नौ बच्चे होते हैं। कोई रेता लाता है और कोई अपने घर से खिलौने और खाने-पीने का सामान। पूरे दिन मेहनत करके बच्चे झांकी सजाते हैं और शाम होते होते जब लोग अपने घरों से बाहर निकलकर इन झाकियों को देखने निकलते हैं तो इन बच्चों के हाथ में एक थाली होती है जिसमें दिए में जलती लौ के साथ होता मिश्री का प्रसाद और एक तरफ होती है रोली।

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बच्चे हर आने जाने वाले के सामने थाली लेकर खड़े हो जाते हैं, उसके माथे पर टीका लगाते हैं और फिर थाली में से प्रसाद देते हैं। थाली में पहले से पड़े हुए रुपए इस बात की गारंटी होते हैं कि आपको भी उसमें कुछ ना कुछ चढ़ावा चढ़ाना है। वैसे भी बच्चों की मेहनत देखकर और इस तरह से आपको तिलक और प्रसाद देते देखकर कोई बेशरम ही होगा जिसका मन चढ़ावे के तौर पर बच्चों की थाली में कुछ डालने का नहीं करेगा... यह प्रथा कुछ कुछ शीतला माता के मंदिर पर बैठे गरीब बच्चों की तरह ही है जो हर आने जाने वाले के माथे पर टीका लगाते हैं और उनसे कुछ मांगते हैं, यहां फर्क केवल इतना है कि बच्चे केवल टीका लगाते हैं, प्रसाद देते हैं और थाली आगे कर देते हैं। कुछ मांगते नहीं... और हम लोग भले ही उन मंदिरों के गरीब बच्चों को एक पैसा भी ना दें लेकिन इन बच्चों की थालियों में बड़े आराम से दस, पांच, 20 और कई बार तो सौ-सौ के नोट भी डाल देते हैं, बिना यह जाने कि बच्चे इन पैसों का क्या करेंगे।

शाम छै बजे से रात लगभग 10 बजे तक यहीं चलता रहता है.., और इसके बाद शुरू होता है कॉलोनियों में
जन्माष्टमी के अवसर पर बच्चों के समूह द्वारा बनाई गए एक झांकी
झांकियां बनाने वाले बच्चों में पैसों का बंटवारा। सारे बच्चे चढ़ावे में चढ़े रुपए जो लगभग 400-500 हो चुके होते हैं, आपस में बराबर-बराबर बांट लेते हैं और बड़ी खुशी-खुशी उन्हें लेकर घर आ जाते हैं। 14-15 साल के बच्चे इसमें अहम् भूमिका निभाते हैं और बंटवारे में सहायता करते हैं.. उन्हें भी दो-तीन घंटो में पचास साठ रुपए कमाने का यह तरीका बड़ा भाता है। कुछ बच्चे तो खासतौर से अपने ग्रुप में कम लोग रखते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसे हर एक के हिस्से में आएं। यह सच है कि कुछ बच्चे अपने घर से 50 या 100 रुपए लेकर भी आते हैं जिससे यह जन्माष्टमी की झांकी के लिए सामान खरीदते हैं लेकिन उसके पीछे भी प्रयोजन ज्यादा से ज्यादा अच्छी झांकी बनाकर ज्यादा से ज्यादा चढ़ावा पाने का ही होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बहुत से माता-पिता भी बच्चों द्वारा कमाए गए इन पैसो से बड़े खुश होते हैं और उन्हें आगे और अच्छी झांकी बनाने और पैसे कमाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

हांलाकि पहले यह परम्परा झुग्गी झोपड़ी तक ही सीमित थी जहां मोहल्ले के कुछ युवक पंडाल लगाकर झांकी बनाते थे और चढ़ावे के रूप में आने वाला पैसा आपस में बांट लेते थे लेकिन आजकल यह प्रथा कॉलोनियों के बच्चों में भी खूब चल पड़ी है।

तो साहब यह है दिल्ली का हाल, पहले त्यौहार के लिए तैयार की जाने वाली झांकी आजकल त्यौहार के अवसर पर पैसे कमाने के लिए तैयार की जाती है...।

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