पचास साल तक लोहे की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद मिली आज़ादी....राजू हाथी की आत्मकथा

    प्रस्तावना (प्रोलॉग)

    मैंने तो कभी जाना ही नहीं कि हाथी होना क्या है। पचास साल तक लोहे की कंटीली बेड़ियों में बंधा रहा। 27 बार बेचा और खरीदा गया। हर बार एक नया महावत.. हर बार नए मालिक द्वारा स्वामित्व दिखाने और अनुशासन सिखाने के घंटो मारना..., महावत भीख के लिए पूरे दिन सड़कों पर घुमाता था.. चिलचिलाती धूप हो, कड़ी सर्दी हो या बारिश, मैं हर समय खुले आकाश के नीचे रहा.. खाने को मिला कागज़ और प्लास्टिक,  भूख या दर्द से कराहने पर मिली बेडि़यों और नुकीले अंकुश की मार... और डॉक्टर येदुराज कहते हैं कि मेरा मानवीयता से भरोसा उठ गया है...

    जब पचास साल बाद राजू की आजादी की घड़ी आई तो उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े

    आप लोग मेरे विशालकाय शरीर को और साढ़े पांच टन वज़न को देखकर सोचते होंगे कि मैं बहुत बलशाली हूं, मुझे दर्द नहीं होता..., लेकिन मेरे दर्द की कहानी सुनकर आप भी सिहर उठेंगे। आज मैं आज़ाद हूं और आपको अपनी कहानी सुना पाने की हालत में हूं। मेरी इस कहानी के दो ही चैप्टर्स हैं। एक मेरे पहले पचास साल जब बेड़ियों में रहना ही मेरी जिंदगी थी और एक आज का दौर जब मैं धीरे-धीरे जान रहा हूं कि हाथी होना क्या है...


    मार पिटाई, बेड़ियों का बचपन और 27 बार बिकना-   

     मैं पचास साल का मखना नर हाथी हूं। मेरा नाम राजू है। शायद महावत ने ही मुझे यह नाम दिया होगा या पता नहीं यह नाम कैसे पड़ा पर अब मैं इसी नाम से जाना जाता हूं। अपने बचपन के बारे में ज्यादा कुछ याद नहीं। तब शायद मैं बहुत छोटा था, कुछ महीने का.. तभी शिकारी मुझे जंगल से पकड़ लाए थे और मुझे मेरे पहले मालिक को बेच दिया। तब पहली बार उसने मुझे जंजीर से बांधा। मुझे मारा, इतना मारा कि डर के मारे मुझे उसकी हर बात मानने को मजबूर होना पड़ा। वो जो कहता था मैं करता था, वरना मार पड़ती थी। नुकीले अंकुश की मार या फिर कंटीली झाड़ियों की मार। दो साल तक मैं उसके पास रहा और फिर जब मैं दो साल का हुआ तो उसने मुझे बेच दिया।

     फिर एक नया स्वामी, नया अनुशासन, फिर से मार... मेरी बेड़िया जो एक बार पैरों में पड़ गई थीं , मुझे नहीं पता था कि अब यह पचास साल बाद खुलेंगी। उस नए मालिक ने मेरे चारो पैरों को जंजीर से बांध दिया और मुझे घंटो मारता रहा। तब तक मारता रहा जब तक मैंने उसके इशारे समझने नहीं सीख लिए। वो जब कहे तब बैठने का इशारा, वो जब कहे तब उठने का इशारा, सूढ़ उठाने का इशारा, सिर हिलाने का इशारा....। इतना सिखाकर दो साल तक  उसने भी मेरे से खूब मेहनत करवाई.. पैसे कमाए.., और फिर मुझे बेच दिया एक नए मालिक के हाथों.. थोड़े से ज्यादा पैसो के लालच में। 

    कभी एक साल में तो कभी दो सालों में... 27 बार मुझे बेचा गया। उत्तर प्रदेश के 29 गांवों में रहा मैं। एक बार तो मेरा मालिक मुझे बेचने के लिए बिहार के सोनपुर हाथी मेले में भी ले गया था। वहां भी मेरे जैसे बहुत थे। बेड़ियों में बंधे हुए लाचार हाथी। उन्हें देखा तो बस लगने लगा कि यहीं शायद हम हाथियों की किस्मत होती है। बार बार बिकना... बार-बार मार खाना, मालिक का पेट भरने के लिए दिन भर कड़ी मेहनत करना और खुद भूखे पेट सो जाना।  हर बार नयी जगह, नया मालिक, नया अनुशासन का पाठ और बेरहम पिटाई। कुछ नहीं बदलता था तो मेरे पैरों की बेड़ियां... वो कांटेदार बेड़िया जिन्हें मनुष्य स्पाइक्ड शैकल्स कहते हैं। 


    पचास साल तक इन्हीं लोहे की कांटेदार जंजीरों में जकड़ा रहा मैं

    मुझे याद है मेरे सारे मालिक अपनी खोली में सोते थे लेकिन मैं हमेशा खुले आसमान के नीचे ही रहा। कड़ाके की ठंड हो, चिलचिलाती धूप या फिर रिमझिम होती बारिश... मेरी बेड़ियां खुले आसमान के नीचे ही बंधती थी। रात हो या दिन मैं वहीं मैदान में बांध दिया जाता था। 

    महावत के लिए भीख मांगी, और मुझे प्लास्टिक और कागज़ पर गुजारा करना पड़ा
    मालिक के लिए दिन भर भीख मांगने के बाद भी मुझे हमेशा भूखा रहना पड़ता था
    एक के बाद एक बिकते हुए मैं अपने आखिरी मालिक तक पहुंचा जो एक ड्रग एडिक्ट था। उसने इलाहाबाद के एक गांव में मुझे रखा था। मेरे पैर की बेड़ियों में जाने कब की जंग लग चुकी थी। वो मेरे सीधे पैर के मांस में इस कदर पैबस्त हो गई थीं कि वहां एक खोह जैसी बन गई थी। मेरे पैर में पस पड़ गया था। चलने में बहुत तकलीफ होती थी। पर क्या करूं नहीं चलता, महावत का आदेश नहीं मानता तो फिर से पिटाई सहनी पड़ती। इसलिए मैं चलता था.. पैर से पस रिसता रहता था, शरीर पर पिटाई के और भी खुले जख्म थे, पर चलना पड़ता था.. करतब दिखाने के लिए, भीख मांगने के लिए.., जो महावत कहे वो करने के लिए.. ।

     मेरा महावत मुझे संगम किनारे ले जाता था। वहां कई लोग मेरी पूजा करते थे और मेरे महावत को पैसे देते थे। लोग मुझे मिठाई या पूरियां वगैरह दे देते थे, और मैं भूख का मारा उन्हें खा लेता था। मेरे किसी भी महावत ने मुझे कभी भरपेट तो क्या थोड़ा सा भी खाना नहीं दिया। जिंदगी भर लगभग भूखा रहा मैं। क्या करता..,  सड़क पर जो कागज या प्लास्टिक पड़ा मिल जाता था.., या फिर सब्जियों के छिलके,.. बस उसी को खाकर अपना पेट भरना सीख लिया। सड़क पर चलते कभी पेड़ दिखते तो वो भी खाने के लिए महावत नहीं रुकने देता था। जब संगम पर नहीं जाता था तो मुझे लेकर सड़कों पर घूमता था और मुझसे सूढ़ उठाकर भीख मंगवाता था। 
    मुझे कई बार लोगों को घुमाने के लिए भी इस्तेमाल किया... लेकिन मेरे खाने और आराम का कभी ध्यान नहीं रखा। वो खुद थक जाता था तो आराम करता था, लेकिन मेरा आराम उसे मंजूर नहीं था। मेरे लिए तो बस वही बेड़ियों वाला बाड़ा था जहां मुझे हर शाम थक कर चूर होने के बाद बांधा जाता था और खाना या पानी भी नहीं दिया जाता था।... रात को भूख के कारण जब मैं कई बार चिंघाड़ता था तो कभी कभार आस-पास के लोग आकर सब्जी के छिलके या बचा खाना डाल जाते थे जिसे खाकर किसी तरह काम चलता था ...और कई बार तो इस पर भी महावत की मार ही पड़ती थी। 
    मेरे दांत और पूछ के बात तक बेच दिए मालिक ने- 

    उसने मेेरे दांत तोड़कर तो बहुत पहले बेच दिए थे। लोगों को कहता था कि हाथी की पूंछ के बालों को घर में रखने से अच्छा भाग्य आता है... और लोग कुछ सौ रुपए देकर मेरी पूछ के बाल खरीदने को तैयार हो जाते थे। तब बड़ी बेरहमी से वो मेरी पूंछ के बाल तोड़कर उन लोगों को बेच देता था। 


50 साल बाद आई आज़ादी की घड़ी-  


मैंने तो कभी आज़ादी का मतलब जाना ही नहीं था। लेकिन पचास साल तक ऐसी ही दशा में रहने के बाद शायद किसी को मेरी हालत पर रहम आ गया होगा और उसने जुलाई  2013 में वाइल्डलाइफ एसओएस नाम की समाजसेवी संस्था को मेरे बारे में बता दिया। वो लोग अच्छे थे। जब उन्हें मेरे बारे में पता चला तो उन्होंने मुझे छुड़ाने की कोशिशें शुरू कर दीं। उन्होंने कागज़ी कार्यवाही की और कोर्ट का आदेश प्राप्त किया। मेरा इंतज़ार एक साल और चला और आखिरकार एक साल बाद कोर्ट ने मुझे छुड़ाने का आदेश दिया और तब वो लोग मुझे छुड़ाने के लिए आए। 


2 जुलाई, 2014 को शुरू हुई मुझे आज़ाद कराने की मुहिम- 

2 जुलाई शाम को साढ़े छ बजे के लगभग वाइल्डलाइफ एसओएस के पशु चिकित्सक डॉक्टर येदुराज, चार महावतों, एक वाइल्डलाइफ बायोलॉजिस्ट, और चार आपातकालीन स्टाफ के साथ मुझे छुड़ाने आए। उनके साथ उत्तर प्रदेश के 20 फॉरेस्ट ऑफिसर और पुलिस के जवान भी थे। वो मुझे ले जाने के लिए एक दस पहियों वाला बहुत बड़ा ट्रक लेकर आए थे। 

पहले तो मैं उन लोगों को देखकर डर गया लेकिन फिर उनका व्यवहार मुझे मेरे महावत से कुछ अलग लगा। उनकी आंखों में मेरे लिए प्यार था। जब वो लोग मुझे छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे तभी मेरा महावत उनसे लड़ने आ गया, उसने मेरे चारों पैरों में और बेड़ियां बांध दी, इतनी कसकर कि मुझे बेहद दर्द होने लगा। इतना दर्द कि मैं बयान नहीं कर सकता। और फिर महावत ने मुझे उन लोगों पर हमला करने का आदेश दिया...। मैं हमला कर भी देता लेकिन एक तो मेरे पैरों में दर्द और दूसरे वो लोग बिना डरे वहां खड़े हुए थे, मुझे छुड़ाने की जिद कर रहे थे... । मैंने हमला नहीं किया। उस दिन पहली बार मुझे लगा कि शायद मेरी आज़ादी के दिन आ गए हैं और मेरी आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे..। बहुत रोया मैं उस दिन। 

और आखिरकार उन लोगों ने मेरे महावत से लड़कर मुझे छुड़ा ही लिया। वो लोग मुझे अपने ट्रक में ले गए। उन्होंने मुझे खाने को आम, केले और कटहल दिए। जब मैं ट्रक में चढ़ गया तो उन्होंने मुझे कुछ दवाएं भी दी जिससे मुझे नींद सी आने लगी थी। 

4 जुलाई, 2014 को कटी मेरी बेड़ियां और मिली आज़ादी- 

3 जुलाई की रात को लगभग 16 घंटे की यात्रा करके हम 350 मील दूर मथुरा, उत्तर प्रदेश के 'ऐलीफेन्ट केयर एंड कंजर्वेशन सेंटर' पहुंचे। मुझे वहां पहुंचकर पता चला कि डॉक्टर येदुराज पूरे रास्ते मेरे ही ट्रक पर बैठकर आए थे ताकि वो मेरा ख्याल रख सकें। मैं अभिभूत था। समझ नहीं आ रहा था कि ये लोग क्या करना चाहते हैं। फिर वो लोग मुझे ट्रक से उतारकर एक जंगल जैसी जगह ले गए..., और फिर डॉक्टर येदुराज ने मेरे पैर की कांटेदार बेड़ियां खोलने की शुरूआत की।

डॉक्टर येदुराज ने मेरे पैरों की बेड़ियां काट दी
वो समय इतना कठिन और दर्द भरा था.. कंटीली लोहे की बेड़िया मेरे पैर के मांस में घुस गईं थी। डॉक्टर येदुराज ने धीरे-धीरे करके उन्हें निकाला। मुझे बहुत दर्द हो रहा था, लेकिन वो बड़े प्यार से मेरे पैरों से वो जंग लगी बेड़ियां निकालने में लगे रहे। पूरे पैंतालीस मिनट बाद मेरी बेड़ियां निकली और मैं पांच दशकों की गुलामी से मुक्त हो गया। चार जुलाई की सुबह मेरे लिए आज़ादी लेकर आई। डॉक्टर और उनके साथियों ने मेरे पैर पर दवाईयां लगाई, मुझे फल खाने को दिए जो पहले मुझे कभी मिले ही नहीं थे। इतना प्यार मैंने कभी देखा ही नहीं था...। जानते हैं उस रात वहां सात और भी हाथी थे जो मुझे देखने के लिए वहां आ गए थे। और जब मेरे पैर से बेड़ियां खुल गईं तब पहली बार मैं अपने होश में बिना बेड़ियों के ज़मीन पर चला...

50 साल बाद मिली बेड़ियों से आज़ादी... 'बिना बेड़ियों के पहला कदम'

पैरों में बिना लोहे के बोझ के विचरने का सुख क्या होता है, कितना हल्कापन महसूस होता है... यह मैंने उस दिन जाना। भरपेट खाना क्या होता है, सिर के नीचे छत का मतलब क्या होता है, यह मैंने उस दिन जाना। उस दिन मुझे पता चला कि मारपीट नहीं करने वाले लोग भी होते हैं...

अब लगभग एक महीना हो चला है। मैं धीरे-धीरे ठीक हो रहा हूं। मेरे शरीर पर बहुत सारे जख्म थे जिन पर मेरे किसी भी मालिक ने कभी ध्यान नहीं दिया। लेकिन यहां के लोग बड़े प्यार से मेरी देखभाल करते हैं। मुझे खाने को देते हैं। मेरे जख्मों पर दवाई लगाते हैं। मुझे नहलाते हैं, खिलाते हैं... और सबसे बड़ी बात यह सब करने के बाद वो मुझे लोहे की जंजीर से नहीं बांधते, मेरी नाक, कान या बगल में अंकुश नहीं चुभाते और ना ही मुझे भीख मांगने के लिए पथरीली सड़कों पर ले जाते हैं। मैं आत्मसम्मान की जिंदगी जी रहा हूं और शायद अब मेरी जिंदगी खुशी खुशी गुजरेगी।

अपने दोस्तों के साथ राजू (हर्ड ऑफ होप)
यहां मेरे और भी दोस्त हैं। दो मेरी ही तरह नर हाथी हैं- भोला और राकेश और पांच मादा हाथी भी हैं। जिनमें से चंचल, लक्ष्मी और साईं गीता मेरी अच्छी दोस्त हैं। मुझे पता चला है कि मेरी ही तरह इन सबको भी बुरे मालिकों और स्वार्थी लोगों से आज़ाद करवाकर यहां रखा गया है। मेरे और पांचो मादा हथिनियों के ग्रुप को यहां के लोग 'हर्ड ऑफ होप' कहते हैं। यहां पूल भी है, जिसमें हम सब खूब नहाते हैं, खेलते हैं, मस्ती करते हैं...। हम साथ घूमते हैं, खाना खाते हैं और हमेशा खुश रहते हैं।

उपसंहार (एपिलॉग)
जब मैं यहां आया था तो बेहद डरा हुआ था, तब डॉक्टर येदुराज कहते थे कि मेरा मानवता से विश्वास उठ चुका है। लेकिन अब उनके साथियों और खुद उनके प्यार और देखभाल के कारण मैं फिर से अपने आप से और मनुष्यों से प्यार करना सीख रहा हूं। मेरा अच्छाई में विश्वास फिर से बनने लगा है।

अगर आप भी मुझसे और मेरे दोस्तों से मिलना चाहते हैं तो मथुरा में हमारे ऐलीफेन्ट केयर एंड कंजर्वेशन सेंटर आईए। यह आगरा स्थित ताजमहल से केवल 45 मिनट की दूरी पर है। और अगर आप मेरे जैसे अन्य मुश्किल में पड़े हाथियों की सहायता करना चाहते हैं, या मेरे और मेरे साथियों की देखभाल के लिए अनुदान देना चाहते हैं या फिर मेरे बारे में और जानना चाहते हैं तो इस वेबसाइट को विज़िट कीजिए-  http://www.wildlifesos.org/



('वाइल्डलाइफ एसओएस डॉट ओआरजी' और 'डेली मेल, यूके' की रिपोर्ट पर आधारित)


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