जानलेवा पेंटावैलेंट वैक्सीन???? दो सालों में टीकाकरण के बाद गई 54 बच्चों की जान, आखिरकार पहली बार सरकार ने भी माना पेंटावैलेंट टीकाकरण से जुड़े हैं तीन बच्चों की मौत के मामले



दिसंबर 2011 में भारत के इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम में शामिल की गई फाइव-इन-वन पेंटावैलेंट वैक्सीन के टीकाकरण के बाद अब तक नौ राज्यों में 54 नवजात शिशुओं की जाने जा चुकी हैं। इस जानलेवा टीके के प्रभावों, कारगरता, सुरक्षा और भारत में इसकी ज़रूरत पर सवाल उठाने वाले जन स्वास्थ्य विशेषज्ञो को ‘एंटी वैक्सीन लॉबी’ कहकर खारिज करने वाला स्वास्थ्य मंत्रालय अब खुद सवालों के घेरे में है। पहली बार इन विशेषज्ञों द्वारा पेंटावेलेंट को असुरक्षित कहे जाने की पुष्टि सरकारी जांच में भी हो गई है। जांच में तीन बच्चों की मौत को पेंटावैलेंट टीकाकरण से संबंधित पाया गया है और इनमें से एक मौत का वर्गीकरण तो सीधे ‘वैक्सीन रिएक्शन’ के तौर पर ही किया गया है। अब सवाल यह है कि क्या अब सरकार चेत जाएगी और इस वैक्सीन को देशव्यापी तौर पर शुरू करने से पहले इसकी ठीक से जांच करेगी या फिर 54 नवजातों की मौत, पेंटावैलेंट के दुष्प्रभावों और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञो की चिन्ताओं को दरकिनार करके सिर्फ डब्ल्यूएचओ के दवाब में इस वैक्सीन का प्रयोग जारी रखेगी....

जानलेवा पैंटावैलेंट वैक्सीन – दो साल, नौ राज्य, 54 नवजात शिशुओं की मौत, 135 अस्पताल भर्ती मामले... 

डिप्थीरिया, परटूसिस, टेटनस, हेपेटाइटिस बी और हिब मैनन्जाइटिस बीमारियों से बच्चों को बचाने लिए फाइव-इन-वन पैंटावैलेंट टीका यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम (यूआईपी) के तहत 9 राज्यों में नवजात शिशुओं को लगाया जा रहा है। सरकार ने 14 दिसम्बर 2011 को तमिलनाडु और केरल से इसकी शुरूआत की थी। लेकिन इसे शुरु किए जाने के साल भर के अन्दर ही 19 बच्चों की मौत हो गई। इतने बच्चों की मौत और सुप्रीम कोर्ट में पैंटावेलेंट टीके के खिलाफ जनयाचिका दायर होने के बावजूद स्वास्थ्य मंत्रालय ने दिसंबर 2012 में इसे सात अन्य राज्यों- गोवा, हरियाणा, गुजरात, जम्मू कश्मीर, पुद्दुचेरी, कर्नाटक और दिल्ली में शुरू कर दिया। नतीजा.....पैंटावेलेंट टीके की शुरुआत के बाद अन्य राज्यों से भी नवजात शिशुओं की मौत की खबरें मिलने लगी-

  •  14 दिसंबर 2011 को केरल और तमिलनाडु में पैंटावैलेंट टीकाकरण कार्यक्रम की शुरुआत के अगले ही दिन 15 दिसंबर को केरल में एन्सी नाम की एक बच्ची टीकाकरण के 20 घंटों के अंदर मर गई।
  • दिसंबर 2011 से फरवरी 2013 तक, लगभग एक साल के भीतर ही पेंटावैलेंट टीकाकरण के बाद 19 बच्चों की मौत के मामले दर्ज किए गए और 60 बच्चों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। 
  • हरियाणा में पैंटावैलेंट दिसंबर 2012 में शुरु की गई थी और इसकी शुरुआत के एक महीने के भीतर ही 9 जनवरी 2013 को झज्जर जिले के जसौर खेड़ी गांव में एक नवजात बच्चे की टीकाकरण के कुछ घंटों बाद मौत हो गई। अब तक हरियाणा में 5 नवजात शिशुओं की जान जा चुकी है। 
  • कश्मीर में पेंटावैलेंट टीकाकरण के बाद सितंबर 2012 से अक्टूबर 2012 तक जीबी पंत अस्पताल में आठ नवजात शिशुओं की मौत दर्ज की गईं। सरकार ने जांच कमेटी भेजी जिसने इन मौतों को सैप्टीसीमिया और निमोनिया के कारण हुई मौत कहकर खारिज कर दिया और वैक्सीन को क्लीन चिट दे दी। हांलाकि इस पर काफी विवाद हुआ और कश्मीर के डॉक्टरों ने पैंटावेलेंट पर रोक लगाने की मांग भी की।
  • पेंटावैलेंट टीकाकरण के दो सालों में अब तक दिल्ली में 3, गोवा में 2, गुजरात में 2, हरियाणा में 5, जम्मू-कश्मीर में 12, कर्नाटक में 6, केरल में 16 और तमिलनाडु में 8 नवजात शिशुओं समेत सात राज्यों के कुल 54 बच्चों की मृत्यु हो चुकी है जबकि 135 बच्चों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। 



स्वास्थ्य मंत्रालय ने पहली बार माना पेंटावेलेंट टीकाकरण से जुड़ी है शिशुओं की मौत

हर बार पेंटावेलेंट टीकाकरण के बाद हुई नवजात शिशुओं की मौतों की जांच की गई और हर बार इन मामलों में पेंटावेलेंट की भूमिका को नकार दिया गया। पेंटावैलेंट को सुरक्षित टीका कहकर सरकार ने इसका प्रयोग जारी रखा।
लेकिन पहली बार दिल्ली के संजय शर्मा की आरटीआई के जवाब में स्वास्थ्य मंत्रालय ने जो दस्तावेज उपलब्ध कराए हैं उनमें स्पष्ट लिखा है कि तीन बच्चों की मौतें पैंटावेलेंट टीकाकरण से जुड़ी हुई हैं। जबकि इनमें से एक मौत का वर्गीकरण सीधे ‘वैक्सीन रिएक्शन’ के तौर पर किया गया है। यह तीनों मामले तमिलनाडु के हैं।
इन दस्तावेजो में बीस शिशुओं की मौत की जांच रिपोर्ट दी गई है। हांलाकि शुरुआती जांच में आठ मामलों को सडन इन्फेन्ट डेथ सिन्ड्रोम (सिड्स) के मामले कहा गया था लेकिन नई रिपोर्ट में सिर्फ एक मामले को सिड्स के अन्तर्गत रखा गया है जबकि सात अन्य मौतों को वर्गीकृत के अयोग्य (अनक्लासिफायबल) श्रेणी में डाल दिया गया है।

यहां हम आपको बता दें कि अनक्लासिफायबल उन मामलों को कहा जाता हैं जिनमें मौत की कारणों की जांच के लिए पूरी जानकारी उपलब्ध ना हो। राष्ट्रीय एईएफआई समिति (National Adverse Events Following Immunisation Committee) जो कि टीकाकरण से होने वाले दुष्प्रभावों की जांच करती है, ने इन 20 मामलो की जांच की थी जिसकी ताज़ी केजुअल्टी असेसमेन्ट रिपोर्ट में भी इन बच्चों की मौत के कारणों और पोस्टमार्टम की जांच के बाद इन्हें वैसोजैनिक शॉक के कारण हुई मौते करार दिया है।

शुरु से सवालों के घेरे में है पेंटावेलेंट वैक्सीन, कोर्ट में भी जारी है इसके खिलाफ लड़ाई
सरकार द्वारा देश भर में पैंटावैलेंट वैक्सीन शुरू किए जाने का फैसला शुरूआत से ही सवालों के घेरे में है। नेशनल टैक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑन इम्यूनाइजेशन (NTAGI) ने जब 2010 में इस टीके को तमिलनाडु और केरल में शुरू करने का प्रस्ताव दिया था तब इसी समूह के कुछ सदस्यों समेत भारत सरकार के नीति सलाहकार और एक भूतपूर्व नौकरशाह ने इसका विरोध करते हुए दिसंबर 2010 में इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनयाचिका दायर की थी। इसमें कहा गया था-
  • यह प्रस्ताव बिना उन आंकड़ों को ध्यान में रखे दिए हैं जो यह बताते हैं कि हिब से होने वाली मैनेन्जाइटिस दरअसल भारतीय बच्चों में विश्व के अन्य देशों से कहीं कम होती है। इसलिए इन बच्चों को हिब का टीका देने की कोई ज़रूरत नहीं है। 
  • उन देशों, जिनमें काफी सालों से पैंटावैलेंट टीके का प्रयोग किया जा रहा है, से मिले आंकड़े बताते हैं कि इससे बच्चों को असल में कोई फायदा नहीं हो रहा है।
  • सरकार ने पहले तो लगभग वो सारी पब्लिक सैक्टर यूनिट्स बंद कर दीं जो डीपीटी, बीसीजी और मीसल्स के टीके बहुत ही कम लागत में तैयार करके उपलब्ध कराती थीं। और इनके बन्द किए जाने के कुछ समय बाद ही सरकार ने नए टीकों को शुरु करने का निर्णय लिया जो कि निजी क्षेत्र द्वारा ही बनाई जाती हैं। 
  • इस टीके का प्रभाव शक के घेरे में है, जिनके साइड इफैक्ट्स हैं और यह बिना किसी ठोस अध्ययन के सिर्फ डब्ल्यूएचओ के दबाव में इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम में जोड़ा जा रहा है। 
  • सरकार को इसे शुरू करने से पहले बिना डीपीटी वैक्सीन के साथ इसे संयुक्त किए, बच्चों पर इसके प्रभाव के बारे में जानकारी लेनी चाहिए और इसकी सुरक्षा की जांच की जानी चाहिए।
बढ़ते दबाव के कारण सरकार को उस समय वैक्सीन शुरू करने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। लेकिन फिर सरकार ने दिसम्बर 2011 से इस वैक्सीन को दक्षिण भारतीय राज्यों तमिलनाडु और केरल में शुरू करने का निर्णय ले लिया। लेकिन शुरुआत के कुछ ही महीनों में पेंटावैलेंट टीकाकरण से हुई मौतों को देखते हुए एक अन्य डॉक्टर योगेश जैन ने भी 2013 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनयाचिका दायर करके इस वैक्सीन प्रतिबंधित करने की मांग की।

डॉ योगेश जैन की याचिका में कहा गया है कि पैंटावेलेंट वैक्सीन के गम्भीर साइड इफैक्ट्स है और यह कनाडा, यूएस, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, यूके और जापान जैसे विकसित देशों में प्रतिबंधित है। वहीं विकासशील देशों में भी पैंटावेलेंट के कारण बच्चों की जाने जा चुकी हैं। भारत सरकार ने इन सारी बातों को अनदेखा करते हुए डब्ल्यू एच ओ और गावी जैसी वैश्विक एजेंसियों के दवाब में पेंटावेलेंट को यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम में शामिल किया है।

डॉ योगेश जैन के वकील ने यह भी दावा किया था कि जितने बच्चों की मौत की रिपोर्ट सरकार के पास है, दरअसल उससे कहीं ज्याद जानें पेंटावेलेंट ले चुकी है और जिन्हें रिपोर्ट नहीं किया गया है। सितम्बर 2013 में इस जनयाचिका पर कार्यवाई करते हुए चीफ जस्टिस पी सदाशिवम की अगुआई वाली पीठ ने केन्द्र और पेंटावेलेंट टीके की निर्माता कंपनी सीरम इन्स्टीट्यूट, पुणे को इस संबंध में नोटिस भी भेजा था।

अन्य देशों में भी जानलेवा साबित हुई है पेन्टावैलेन्ट 



  • श्रीलंका में 2008 में पैंटावैलेंट को शुरू किया गया लेकिन पांच बच्चों की मौत के बाद इसे निलंबित कर दिया गया।
  • जुलाई 2009 में भूटान में इसकी शुरूआत के बाद 9 बच्चों की मौत के मामले सामने आए जिसके बाद इसे इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम से हटा दिया गया। बाद में डब्ल्यूएचओ के समझाने पर भूटान ने दोबारा यह वैक्सीन शुरू की लेकिन इसके बाद फिर से चार बच्चों की मौत हो गई जिसके बाद भूटान में इसका प्रयोग रोक दिया गया।
  • पाकिस्तान में पेंटावेलेंट की शुरूआत होने पर तीन बच्चों की मौत हुई जिनमें से एक स्वस्थ नवजात बच्चा तो टीकाकरण के आधे घंटे के भीतर ही मर गया।
  • वियतनाम में इस वैक्सीन को 2010 में शुरू किया गया था जिसके बाद दुष्प्रभावों के मामले सामने आते रहे। लेकिन 1 अक्टूबर 2012 से 31 मार्च 2013 तक 12 बच्चों की मौत और 9 बच्चों की अस्पताल में भर्ती के बाद मई 2013 में यहां भी पैंटावैलेंट वैक्सीन क्विनवैक्सेम पर रोक लगा दी गई।
दिलचस्प बात यह है कि इन सभी देशों में बच्चों की मौत के मामलों की जांच के बाद वैक्सीन को क्लीन चिट दे दी गई और इसे वापस शुरू कर दिया गया। इसी तरह हर ‘विकासशील’ देश में पेंटावेलेंट टीकाकरण के बाद बच्चों की जान जाने के मामलों की जांच में कभी भी वैक्सीन को दोषी नहीं माना गया। हर बार या तो वो कोइन्सिडेन्टल मृत्यू के मामले थे, या सडन इन्फेन्ट डेथ सिन्ड्रोम के या फिर जानकारी के अभाव में उन्हें अवर्गीकृत कर दिया गया।

देश को हिब वैक्सीन की ज़रूरत ही नहीं

1997-99 में हिब मैनेंजाइटिस के लिए एक कम्यूनिटी बेस्ड स्टडी (मिन्ज़ स्टडी) में यह पाया गया था कि हिब मैनेंजाइटिस के मामले भारत में सिर्फ 0.007 फीसदी होते हैं यानि हर एक लाख बच्चों पर 7 बच्चों में यह बीमारी होती है, जो काफी कम हैं और जिसके लिए पूरी जनसंख्या को हिब का टीका देने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन सरकार ने इस स्टडी को पुरानी कहकर खारिज कर दिया।

पेंटावैलेंट टीके को इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम में शुरू करते वक्त वॉट स्टडी का हवाला दिया गया जो तुलनात्मक तौर पर नई स्टडी थी और जिसमें हिब बीमारी के आंकड़ों को काफी बढ़ाकर प्रस्तुत किया गया था। इसी स्टडी को आधार बनाकर हिब के टीके को भारत में शुरू करने का निर्णय लिया गया। यहां यह बताना ज़रूरी है कि यह स्टडी बिना जनसंख्या आधारित आंकड़ों के की गई थी और इसके लिए वित्तीय अनुदान ग्लोबल एलायंस फॉर वैक्सीन इम्यूनाइजेशन (गावी) ने दिया था। गावी वही संस्था है जिसने डब्ल्यूएचओ के साथ मिलकर भारत में पेंटावेलेंट टीके का प्रयोग शुरू करने का प्रस्ताव दिया था।


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क्या है पैंटावैलेंट वैक्सीन

भारत सरकार के इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम के अन्तर्गत सरकारी अस्पतालों में नवजात शिशुओं को पहले ओरल पोलियो वैक्सीन के साथ हैपेटाइटिस बी और डीपीटी के टीके लगाए जाते थे। लेकिन लिक्विड पैंटावैलेंट पांच गंभीर बीमारियों से बचाने वाला संयुक्त टीका है जिसमें डिप्थीरिया, परटूसिस, टेटनस, हेपेटाइटिस बी और हिब मैनेंजाइटिस के टीके शामिल हैं।
भारत सरकार ने डब्ल्यूएचओ का प्रस्ताव मानते हुए डीपीटी और हैपेटाइटिस बी की वैक्सीन की जगह इस टीके को अपने युनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम में शामिल करने का निर्णय लिया। इसके पीछे एक तो यह तर्क दिया गया कि चूंकि यह एक संयुक्त वैक्सीन है इसलिए इसके आने के बाद बच्चों को अलग अलग टीकों के इंजेक्शन्स लगाने की बजाय एक ही इंजेक्शन से सारे टीके एक ही बार में लगाए जा सकेंगे और दूसरा यह कि इससे एक और जानलेवा बीमारी हिब मैनेन्जाइटिस से भी भारतीय बच्चों का बचाव हो जाएगा।

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एक था जतिन.... 

दिल्ली की पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) नाम की एक संस्था के सदस्यों ने कश्मीर और हरियाणा में पेंटावेलेंट टीकाकरण के बाद मृत हुए बच्चों के घर जाकर निजी तौर पर उनके परिवारजनों से बात की। इसी महीने 5 फरवरी को संस्था के सदस्य हरियाणा के झज्जर जिले के जसौर खेड़ी जिले में जतिन के परिवार से मिले जिसकी मृत्यू 9 जनवरी 2013 को पेंटावेलेंट टीकाकरण के कुछ ही समय बाद हो गई थी। जतिन के परिवारजनों से उन्हें जो जानकारी मिली वो आपके सामने है, इसे पढ़िए और खुद फैसला लीजिए।
जतिन का जन्म 22 अक्टूबर 2012 को हुआ था। पिता नरेन्दर और मां रितू की दूसरी संतान जतिन का जन्म पूरे नौ महीने के बाद हुआ था और वो पूरी तरह से स्वस्थ शिशु था। जन्म के समय उसका वज़न 2.8 किग्रा था और नियमित रूप से मां के दूध पीने के कारण उसका वज़न बढ़ भी रहा था। 9 जनवरी, 2013, बुधवार के दिन जतिन की मां उसे पास के आंगनबाड़ी केन्द्र में टीका लगवाने ले गई। यहां जतिन को उसी महीने गांव में शुरू किए गये पेंटावेलेंट टीके का इंजेक्शन दिया गया। लेकिन इंजेक्शन लगने के कुछ सेकेन्ड्स बाद ही जतिन अचेत हो गया। परिवार ने सोचा कि टीके के प्रभाव के कारण जतिन सो गया है। वो उसी अवस्था में उसे घर ले आए। लेकिन जब देर रात तक जतिन नहीं उठा तब परिवारजन उसे रोहतक में एक निजी क्लीनिक में ले गए जहां उसे मृत (ब्रॉट डैड) घोषित कर दिया गया।
जतिन की दादी यह बताते हुए रो पड़ती हैं कि कैसे उस दिन टीका लगने से पहले जतिन पूरी तरह से ठीक था और उसमें कोई खांसी, दमा या अन्य बीमारी के लक्षण नहीं दिख रहे थे। वो पूरी तरह से सामान्य था। लेकिन आंगनबाड़ी कार्यकर्ता उन्हें यहीं समझाने की कोशिश करते रहे कि जरूर जतिन को पहले से निमोनिया या एंठन रही होगी, और ऐसे में जब उसने वैक्सीन ली तो रिएक्शन के कारण उसकी मौत हो गई...।
जतिन को खोने के बाद परिवारजन वैक्सीन के नाम से इतना डर चुके हैं, कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के बार-बार कहने के बावजूद वो अपने दूसरे दो साल के बेटे को कोई भी वैक्सीन नहीं दिलाना चाहते।

                                                                                                                                                        

वैक्सीन के कारण एक भी बच्चे की मौत स्वीकार्य नहीं....

डॉ जैकब पुलियल, विभागाध्यक्ष, बाल रोग विभाग (पीडियाट्रिक्स), सेंट स्टीफन्स अस्पताल, दिल्ली 
"इन मामलों में सबसे पहले यह स्वीकार करना बहुत ज़रूरी है कि बच्चों की मौत में पेंटावेलेंट की भूमिका है। तीन मामलों में तो यह साबित हो गया है और बाकी मामलों में भी ठीक से जांच आवश्यक है। पेंटावेलेंट नुकसानदेह है, यह मानना ज़रूरी है। हम वैक्सीन के खिलाफ नहीं है लेकिन बच्चों की सुरक्षा सबसे अहम है। अगर वैक्सीन लगानी ही है तो एक साथ पेंटावेलेंट में ना लगाकर अलग अलग लगाए, डीपीटी लगाएं और हेपेटाइटिस बी और हिब अलग से लगाए ताकि बच्चों की जान की रक्षा हो सके। वैक्सीन ज़रूरी है लेकिन सुरक्षित वैक्सीन जो बच्चों की जान बचाए, ना कि जान लें।"






डॉ योगेश जैन (एमडी) जन स्वास्थ्य चिकित्सक, जन स्वास्थ्य सहयोग, जिला बिलासपुर, छत्तीसगढ़ (पूर्व में – असिस्टेंट प्रोफेसर ऑफ पीडियाट्रिक्स, एम्स, दिल्ली)

"मेरा पहला मुद्दा यह है कि अगर किसी भी टीके को लगाने के बाद 24 घंटे के अंदर कोई बच्चा मर जाता है और आप यह कह देते हैं कि बच्चे को पूर्व में कोई बीमारी थी, या कोई और वजह थी, या उसकी देखभाल में लापरवाही बरती गई जिसके कारण वो मर गया और हमारे पास वैक्सीन को इसका जिम्मेदार मानने का कोई कारण नहीं.., तो यह संतोषजनक उत्तर नहीं है। यह मेरे हिसाब से पूरे के पूरे वैक्सीन कार्यक्रम की असफलता है। दूसरी बात यह कि क्या जन स्वास्थ्य कार्यक्रम में कोई न्यूनतम मृत्यू दर निर्धारित की गई है कि एक लाख बच्चों को वैक्सीन देने पर इतने बच्चों की मृत्यू स्वीकार्य है..., अगर नहीं तो फिर इन बच्चों की मौत के लिए क्या जवाब है? क्यों बच्चों की मौत के बाद भी हम वैक्सीन को सुरक्षित मान रहे हैं और इसका प्रयोग रोक नहीं रहे हैं? मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं वैक्सीन के खिलाफ नहीं हूं। मेरा बस यह कहना है कि वैक्सीन से जान बचनी चाहिए, जानी नहीं चाहिए और जान जा रही है तो इसकी जांच बहुत ज्यादा ज़रूरी है, एक्शन लेना ज़रूरी है।"
                                                                                                                                                          


पेंटावेलेंट के कारण ही हुई हैं मौतें... एक  विश्लेषण

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण से मिले आंकड़ों के मुताबिक पेंटावेलेंट टीकाकरण के बाद 54 बच्चे मर चुके हैं। सबसे ज्यादा -26 बच्चों की मौत वैक्सीन की पहली खुराक के बाद ही हो गई थी, उनसे कम की दूसरी खुराक के बाद (10 बच्चों की) और सबसे कम की तीसरी खुराक के बाद (3) मौत हुई। जबकि बाकी 15 मामलों में दी गई खुराकों की संख्या दर्ज नहीं की गई। 
दिल्ली के सेंट स्टीफन्स अस्पताल के डॉक्टर जेकब पुलियल के अनुसार चूंकि अधिकतर बच्चों की मृत्यू पहली ही खुराक लेने के बाद हुई है, इसलिए इसे संयोग नहीं कहा जा सकता कि इतने सारे बच्चों की मौत टीकाकरण के पहले दिन, पहली खुराक लेते ही हो गई। दवाई की संवेदनशीलता को इससे जोड़कर देखें तो भी यह संयोग नहीं लगता क्योंकि अधिकतर लोग जो दवा के प्रति संवेदनशील होते हैं, वो पहली ही खुराक में प्रतिक्रिया दे देते हैं।

विभिन्न राज्यों में दर्ज एईएफआई के दुष्प्रभाव

अब सवाल यह उठता है कि विभिन्न राज्यों में वैक्सिनेशन के बाद बच्चों की मौत की दरों में इतनी असमानता क्यों है। जनवरी 2013 तक, पेंटावेलेंट की शुरुआत के एक साल बाद तक, केरल में जहां 14 मृत्यू के मामले दर्ज किए गए थे वहीं तमिलनाडु में ज्यादा खुराकें दिए जाने के बावजूद मौत के केवल 4 मामले थे। दूसरे साल वैक्सीन जब 6 और राज्यों में शुरू की गई तब राज्यों के बीच यह असमानता और स्पष्ट दिखने लगी। वैक्सीन की हिमायत करने वाले लोग कहते हैं कि अगर वाकई वैक्सीन खतरनाक है तो ऐसा क्यों है कि गुजरात में लाखों बच्चों को पेंटावेलेंट का टीका लगाए जाने के बावजूद वहां एईएफआई (एडवर्स इवेन्ट्स फॉलोइंग इम्यूनाइजेशन) के मामले कम हैं और गोवा में ज्यादा हैं जहां कि कम लोगों को वैक्सीन दी गई है?

लेकिन अगर आंकड़ों की समीक्षा की जाये तो दरअसल इसकी वजह राज्यों की शिशु मृत्यू दर से संबंधित है। गोवा, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में निगरानी तंत्र बहुत अच्छा है जहां लगभग सभी शिशुओं की मृत्यू दर्ज की जाती है।


State
Deaths
Babies vaccinated per death
IMR
Goa
2
3829
10
J&K
12
7284
49
Kerala
16
12252
12
Haryana
5
38372
54
Tamil Nadu
8
51823
31
Karnataka
6
75150
45
Gujarat
2
229246
50
Puducherry
0
Data not available

Delhi
3
Data not available


जहां गोवा में टीकाकरण किए हर 3829 बच्चों पर एक बच्चे की मृत्यू हुई वहीं गुजरात में हर 2.3 लाख बच्चों के टीकाकरण पर एक बच्चे की मृत्यू दर्ज की गई। इसका कारण राज्यों की शिशु मृत्यू दर देखकर जाना जा सकता है। यह साफ है कि गोवा और केरल राज्य जिनकी शिशु मत्यू दर 10 और 12 है वहां पेंटावेलेंट की शुरूआत के बाद शिशु मृत्यू दर बढ़ गई और गुजरात जहां कि शिशु मृत्यू दर बहुत ज्यादा है, वहां एईएफआई के मामलों की रिपोर्टिंग बहुत कम हुई है। 
इसलिए अगर पेंटावेलेंट टीकाकरण के बाद होने वाली मृत्यू दर निकालनी है तो गोवा और केरल के मामले देखे जाने चाहिए जहां स्वास्थ्य देख-रेख और रिपोर्टिंग तंत्र अच्छा है। अगर हम गोवा के मामले से भी देखें जहां हर चार हज़ार टीकाकरण किए गए बच्चों पर 1 बच्चे की मृत्यू हुई है तो एक साल में 25 मिलियन बच्चों का टीकाकरण करने पर 6250 बच्चे हर साल मरेंगे।

और अंत में एक महत्वपूर्ण तथ्य- 19-20 नवम्बर 2013 को दिल्ली में ग्लोबल वैक्सीन सेफ्टी इनीशिएटिव की दूसरी मीटिंग की रिपोर्ट में कहा गया है कि विकासशील देशों में वैक्सीन के सक्रिय निगरानी अध्ययन की बहुत ज्यादा ज़रूरत है। क्योंकि यहां वैक्सीन का प्रयोग बहुत बढ़ गया है और बहुत सी वैक्सीन्स तो बिना सुरक्षा जांचे केवल विकासशील देशों में ही शुरू की जा रही हैं। 

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