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Showing posts from December, 2013

भिखारी भी हैं ट्रेडिंग के धंधे में... भीख के पैसों से होती है ऊपरी कमाई

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यह तस्वीर दिल्ली के प्रगति मैदान के पास स्थित दिल्ली के प्रसिद्ध भैंरो मन्दिर से ली गई है। इसे ज़रा गौर से देखिए क्या हो रहा है इसमें। यह काली जैकेट वाला आदमी यहां की पार्किंग का ठेकेदार है और मन्दिर के द्वार पर बैठी यह महिलाए उसके साथ खुले पैसों की ट्रेडिंग कर रही हैं.... दरअसल भिखारियों के पास खुले पैसे या सिक्कों की भरमार होती है। जो भी इन्हें दान में कुछ देता है वो सिक्के या एक, दो या पांच रुपए के नोट होते हैं जिनकी और लोगों को काफी ज़रूरत होती है।  इसलिए ये लोग भिखारियों को एक या दो रुपए ज्यादा देकर उनसे खुले सिक्के ले लेते हैं। मसलन दस रुपए का नोट देकर एक-एक रुपए के नौ सिक्के लिए जा सकते हैं या फिर बीस-बीस के नोट देकर खुले अट्ठारह या उन्नीस रुपए लिए जा सकते हैं। है तो यह छोटी सी ही ट्रेडिंग, लेकिन इससे इन भिखारियों को थोड़ा फायदा मिल जाता है।    यह शहजाद है जो भैंरो मन्दिर के बाहर ही भीख मांगते हैं। इन्होंने बताया कि मन्दिर के बाहर बैठने के कारण यहां उन्हें शाम तक सौ-सवा सौ रुपए की खेरीज मिल जाती है और अगर खुले पैसों की किसी को ज़रूरत होती है तो वो

पहचानिए यह कारीगरी किस चीज़ पर की गई है...

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क्या आप जानते हैं कि शतरंज के ये खूबसूरत मोहरे किस चीज़ के बने हैं....? अब इन नक्काशीदार कटारों को देखिए। यह भी उसी से बने हैं जिससे शतरंज के मोहरे बने हैं। सोचिए क्या है यह... अब इन्हें देखिए यह की चेन्स, जूड़ा पिन्स, कटारें सबकुछ उसी चीज़ से बने हुए हैं लेकिन आप अब तक नहीं पहचान पाए ना क्या है यह... अब देखिए इन सफेद चीज़ों के टुकड़ों को। इन्हीं से बनी हैं यह सारी चीज़े, यह ज्वेलरी भी। क्या यह सेलम है, संगमरमर, खड़िया या कुछ और? चलिए बताते हैं... यह ऊंट की हड्डियां हैं, "केमल बोन्स"। जी हां ऊपर दिखाई गई सारी चीज़े केमल बोन्स से बनी हैं। कुछ साल पहले हाथी दांत की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तब से अधिकतर कलाकार केमल बोन्स से चीज़े बनाने लगे हैं।  केमल बोन्स हाथी दांत की तरफ दूधिया सफेद नहीं होते इसलिए पहले उन्हें पहले मनचाहे आकार में काटकर संगमरमर के पाउडर के साथ उबाला जाता है ताकि इसे साफ सफेद रंग मिल सके। इसके बाद बोन को हाइड्रोक्सल और पानी से साफ करके इस पर पॉलिश की जाती है जिसके बाद ये कारीगरी के काबिल बनता है।

फिल्में, डांस क्लास, गेम्स, पिकनिक्स, स्मार्ट बोर्ड पर पढ़ाई.....अब स्कूल जाने का मज़ा और है।

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फिल्में... और क्लास में?  रेन डांस... वो भी स्कूल में? डांस क्लासेज का पीरियड....स्कूली छात्र-छात्राओं के लिए?  बिना ब्लैक बोर्ड की पढ़ाई...,  ऐसे टीचर्स भी होते हैं क्या जो पढ़ाई नहीं करने पर मारते नहीं हैं, सज़ा नहीं देते....?  क्या! चिल्ड्रन्स डे पर टीचर्स भी बच्चों के लिए कार्यक्रम करते हैं?..... सोचिए अगर आज से पंद्रह-बीस सालों पहले जब आप स्कूल जाया करते थे, आपने ऐसे प्रश्न पूछे होते और आपको सबके जवाब हां में मिलते तो खुशी के मारे आपका क्या हाल होता। क्या तब भी आप देर तक सोने का, या फिर तबीयत खराब होने का या फिर स्कूल में पढ़ाई ना होने का बहाना बनाकर स्कूल जाना टालते? क्या तब भी आप यह शिकायत करते कि स्कूल इतनी देर तक क्यों चलते हैं, या स्कूलों में इतनी कम छुट्टियां क्यों होती हैं? मैं तो बिल्कुल नहीं टालती, बल्कि रोज़ सुबह स्कूल जाने के लिए उत्साहित रहती जैसा कि आज कल के बच्चे रहते हैं। जी हां, आजकल के बच्चे बहुत लकी हैं, जिनके लिए स्कूल जाने का मतलब सिर्फ सुबह सात बजे से दोपहर एक बजे तक एक के बाद एक लगने वाले बोरिंग पीरियड्स में सिर्फ पढ़ाई करना बिल्कुल नही

कच्ची मिट्टी या बीच का बिच्छू... , ... कुट्टी और पुच्ची..

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जितने मज़ेदार हुआ करते थे बचपन के खेल उतनी ही मज़ेदार थी बचपन के खेलों की शब्दावली। तब यारी-दुश्मनी निभाने, कमज़ोर खिलाड़ी या पक्के खिलाड़ी का पता लगाने और डैन चुनने के लिए मजेदार इशारे, खेल और शब्दावली हुआ करती थी। आईए इनको भी याद कर लें..... पुकाई -  हर खेल में डैन का फैसला पुकाई से हुआ करता था। पुकाई यानि सभी खिलाड़ियों द्वारा एक के ऊपर एक हाथ रखकर हाथों को उल्टा या सीधा खोलना। असमान हाथ लाने वाले को बाहर कर दिया जाता था। इस तरह पुकाई तब तक चलती रहती थी जब तक कोई एक बचा ना रह जाए। जो अंत में बचता था वहीं डैन होता था। कच्ची मिट्टी- कच्ची मिट्टी यानि कमज़ोर खिलाड़ी। जैसा कि अक्सर होता है जब बड़े बच्चे खेल रहे होते थे और उनमें से किसी का छोटा भाई बहन खेलने की ज़िद करता था, तो बड़े बच्चे उसका दिल रखने के लिए उसे खिलाने को तैयार तो हो जाते थे लेकिन उसे कच्ची मिट्टी करार कर दिया जाता था। यानि उसका आउट होना आउट होना नहीं माना जाएगा, वो डैन नहीं बनेगा... जैसी सुविधाएं उसके लिए होती थी। बीच का बिच्छू- किसी कमज़ोर या बेहद मज़बूत खिलाड़ी को बीच का बिच्छू बनाया जाता था। मतलब वह खिल

कहां गया ऊंच-नीच का पापड़ा, इक्कड़ दुक्कड़ की गोटी और पिट्ठू तोड़ने वाली गेंद... "एक शब्दकृति बचपन के खेलों के नाम"

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कम्प्यूटर गेम्स और वीडियो गेम्स के इस ज़माने में हमारे बच्चों को शायद वो खेल कभी खेलने को ना मिलेंजिन्हें कभी हम सभी बचपन में खेला करते थे और जो धीरे-धीरे गायब होने लगे हैं। तब हमारे पास आज के बच्चों जैसी टीवी और कम्प्यूटर की सुविधा नहीं थी और ना ही रिमोट वाले अनगिनत खेल। सो जब चाहा, अपने दोस्तों के साथ इकट्ठा हुए और किसी के भी घर के सामने, पेड़ की छांव तले, आंगन में, पार्क में या बगीचों में यह खेल खेल लिए। यह मज़ेदार इनडोर और आउटडोर खेल बहुत रचनात्मक होते थे और इनको खेलने के लिए चाहिए होते थे चार-पांच दोस्त या सहेलियां, खुला मैदान या घर की छत और सामान के रूप में पत्थर की गिट्टियां, गेंदे, डंडे, कंचे, कागज़- पैंसिल या खड़िया जैसी साधारण सी चीज़े। आज ऐसे ही कुछ खेलों को याद करते हैं जिनके साथ हमारे बचपन की प्यारी यादें जुड़ी है और जिन्हें खेलने का सौभाग्य शायद हम अपने बच्चों को ना दे पाएं... ऊंच-नीच का पापड़ा यह खेल ऐसी जगह खेला जाता था जहां सीढ़ियां या पत्थर या कोई भी ज़मीन से थोड़ी ऊंची जगह मौजूद हो। नीची जगह को 'नीच' और ऊंची जगह को 'ऊंच' कहते थे। पुकाई मे

डोन्ट अन्डरएस्टीमेट द पावर ऑफ अ कॉमन मेन....

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"डोन्ट अन्डरएस्टीमेट द पावर ऑफ अ कॉमन मेन..." फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस का यह डायलॉग आज पूरी तरह से प्रासंगिक हो गया है। कल तक जिस कॉमन मेन पर ना तो जनता विश्वास दिखा रही थी, ना कोई चैनल जिसे भाव दे रहा था और ना ही जिसे बीजेपी या कांग्रेस के नेता अपने बराबर खड़े होने लायक मान रहे थे, आज उस कॉमन मेन ने एक वार में सबको चित्त कर दिया।  कल तक केजरीवाल को सड़क की पार्टी कहने वाले कांग्रेसी नेता मुंह छिपाते फिर रहे हैं। सालों से जीतते आ रहे दिग्गज नेता आम चेहरों से हारने के बाद सद्मे में हैं।  आप को सिर्फ 6 सीटें मिलने की भविष्यवाणी करने वाले चैनलों और अखबारों में आज कुछ इस तरह की हैडलाइन्स हैं...बीजेपी विनर, कांग्रेस ज़ीरो, आप हीरो.., केजरीवाल ने झाड़ू फिराई.., हर तरफ आप ही आप... , कांग्रेस साफ, भाजपा खिली, आगे आप... । कल तक केजरीवाल को भाव ना देने वाले चैनल्स आज आप उम्मीदवारों की प्रतिक्रिया जानने को माइक और कैमरा लेकर उनके आगे-पीछे घूम रहे हैं। और तो और, जनता को भी विश्वास नहीं हो रहा है कि आप ने इतना जबरदस्त धमाका कर दिया है। हर पान की दुकान और चाय की टपरी पर सिर्फ आप की जी

कुछ यादें आज पोटली से निकल पड़ी हैं...

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हर इंसान के पास एक यादों की पोटली होती है जिसमें बहुत ही सहेज कर, एक के ऊपर एक तह करके रखी जाती है यादें। खूबसूरत या बदसूरत, दोनों की ही शक्ल में इस पोटली में मज़बूती से बंद यादों को बड़ी तरतीब से मैंने भी रख रखा है, लेकिन परेशानी यह है कि यह पोटली कभी मेरे खोले नहीं खुलती...।  इसको रखने पर तो मेरा बस है लेकिन खोलने पर बिल्कुल नहीं।  कभी कहीं पार्क में बच्चों को झूलता देखकर तो कभी कुछ लोगों को चाट की ठेल पर हंसी मज़ाक करते हुए गोलगप्पे खाते देख या फिर कभी बाज़ार से सामान लेकर लौटते हुए- स्कूल की दो सहेलियों को बतियाते हुए अपनी-अपनी साइकिलों पर जाते देखकर और या फिर कभी- कभी यूं ही खाली बैठे, इन यादों की पोटली खुल जाती है और इसमें से भरभराकर गिरने लगती हैं यादें.....।  बातरतीब रखी यादें इतने बेतरतीब तरीके से छितर कर गिरती है... पट, पट, पट.. एक के ऊपर एक.., कि बस समझ ही नहीं आता किसे सहेजे, किसे जाने दें.. और कैसे इन्हें फिर से साफ सुथरे तरीके से झाड़ पौंछ कर वापस जमाएं....। दिसंबर की इस गुनगुनी दोपहर में यूंही बाहर खिली धूप को ताकते हुए आज यह पोटली फिर से खुल गई, और मेरे सामने म