कुछ यादें आज पोटली से निकल पड़ी हैं...

हर इंसान के पास एक यादों की पोटली होती है जिसमें बहुत ही सहेज कर, एक के ऊपर एक तह करके रखी जाती है यादें। खूबसूरत या बदसूरत, दोनों की ही शक्ल में इस पोटली में मज़बूती से बंद यादों को बड़ी तरतीब से मैंने भी रख रखा है, लेकिन परेशानी यह है कि यह पोटली कभी मेरे खोले नहीं खुलती...।  इसको रखने पर तो मेरा बस है लेकिन खोलने पर बिल्कुल नहीं।

 कभी कहीं पार्क में बच्चों को झूलता देखकर तो कभी कुछ लोगों को चाट की ठेल पर हंसी मज़ाक करते हुए गोलगप्पे खाते देख या फिर कभी बाज़ार से सामान लेकर लौटते हुए- स्कूल की दो सहेलियों को बतियाते हुए अपनी-अपनी साइकिलों पर जाते देखकर और या फिर कभी- कभी यूं ही खाली बैठे, इन यादों की पोटली खुल जाती है और इसमें से भरभराकर गिरने लगती हैं यादें.....।  बातरतीब रखी यादें इतने बेतरतीब तरीके से छितर कर गिरती है... पट, पट, पट.. एक के ऊपर एक.., कि बस समझ ही नहीं आता किसे सहेजे, किसे जाने दें.. और कैसे इन्हें फिर से साफ सुथरे तरीके से झाड़ पौंछ कर वापस जमाएं....।

दिसंबर की इस गुनगुनी दोपहर में यूंही बाहर खिली धूप को ताकते हुए आज यह पोटली फिर से खुल गई, और मेरे सामने महर्षि पुरम कॉलोनी के मेरे घर की छत और उस पर खिली धूप की यादें आ पड़ी। याद उन दिनों की जब हम जाड़े की दोपहरों में स्कूल से वापस आते ही गैलरी में साइकिल खड़ी करके, जल्दी-जल्दी जूते और जुराबे उतारकर और जैसे-तैसे कपड़े बदलकर मम्मी से खाना मांगते थे और खाना मिलते ही एक हाथ में खाने की प्लेट पकड़े, दूसरे में पानी का गिलास थामे और बगल में कहानी की किताब, पत्रिका, या अखबार दबाए छत पर चढ़ जाया करते थे। 
तब हमारी छत के बाएं ओर धूप सुबह ही आ जाया करती थी और दिन ढलने तक बरकरार रहती थी.., लगभग चार बजे तक। दोपहर दो बजे तो धूप में तेजी भी खूब हुआ करती थी और कुछ सीधी धूप में बैठने पर सांवले होने का डर..., कि हम अलगनी पर पहले एक चादर या शाॉल टांगकर उसकी आड़ बनाते थे और फिर चटाई पर ऐसे बैठा करते थे कि पीठ धूप की तरफ रहे और सिर छांव में। और यूं सूरज को पीठ दिखाते और चादर की आड़ में दीवार से टिक कर हम या तो ताहिरी, या दाल-चावल या रोटी सब्जी का मज़ा लिया करते थे।

आलथी-पालथी मार कर बैठे हुए, एक घुटने पर किताब को खोले, एक-एक कौर खाते हुए और कहानी पढ़ते हुए धूप का आनंद लेते हुए मेरी तस्वीर की इस याद को मैं सहेज ही रही थी, कि अचानक साइकिलों वाली एक और याद पोटली से छिटक गई। मेरी यादों के बाइस्कोप में आगरा के बाईपास रोड की सर्विस लेन खुल गई और उस पर अपनी-अपनी साइकिलों पर चलती मैं और मेरी दो सहेलियां...।  हरीपर्वत का चौराहा, चौराहे की रेड लाइट, रुका हुआ ट्रैफिक और ट्रैफिक तोड़ कर निकलती मेरी, निधि और काजल की साइकिलें..., हम लोगों को भौचक्के से देखता हुआ ट्रेफिक हवलदार और हंसते हुए लोग। .... दयालबाग में मामाजी की फिजिक्स की ट्यूशन क्लास और उसके बाद तुलसी टॉकीज के पीछे एसएन सर की केमिस्ट्री क्लास के ठहाके...। क्या बात है, मेरी इस याद में तो पीरियोडिक टेबल भी है और कैमिस्ट्री के एलीमेन्ट्स का नॉमनक्लेचर फॉर्मूला भी...., ऑर्गेनिक केमिस्ट्री भी और परमाणु संयत्र भी....।

एक याद फिजिक्स लैब में एक दूसरे पर शीशे की चमक फेंकने की है और एक याद बायो लैब में मेंढक का डायसेक्शन करते समय कंपकपाते हाथों की... । हरबेरियम फाइल के साथ थिएटर रूम में शोर मचाने की याद गुथी हुई है। ... और यह एक और याद भोपाल के होस्टल की छत की भी निकल आई। मैं, नेहा, ऐश्वर्या, जया, श्वेता, नीतू... हम सब होस्टल के टैरेस पर चारपाई पर बैठे धूप सेंक रहे हैं और कॉलेज के बारे में गॉसिप कर रहे हैं। रविवार के दिन छत पर कपड़ों का अंबार..., सुबह शाम की चाय.., भोपाल की झीलें और नवभारत का ऑफिस। इस याद में मैं और सरिता हैं और नवभारत के बाहर वाली फ्रूट चाट वाले भैया की दूकान।हम दोनों जाड़े की धूप में बैंचों पर बैठकर मिक्स्ड फ्रूट चाट खा रहे हैं और यह भी डिस्कस कर रहे हैं कि आज कौन सी स्टोरी देनी है...।

ऐसा नहीं है कि मेरी यादों की पोटली से हर याद सीक्वेंस में निकल रही है। बीच-बीच में पीर कल्यानी वाले अम्मा बाबा के पेड़ों और फूलों से लदे बगीचे की याद..., दूरदर्शन के गलियारों में गाना गाते हुए चलने की याद, लखीमपुर के जंगल में खुली हुई जीप से घूमने की याद और खोई हुई डायरी मिलने पर मन कामेश्वर मंदिर जाने जैसी यादें भी निकल पड़ी हैं।

किसे संभालू, किसे छोड़ू, य़ह यादें तो रुक ही नहीं रही है...। और अब मैं अचानक महसूस करती हूं कि इन यादों के बारे में लिखते हुए ना जाने कब से मेरे होठों पर मुस्कान खिली हुई है। मुझे पता ही नहीं चला कि इस पूरे वक्त मैं मुस्कुराती रही हूं...। वक्त हो चला है, अभी तो बहुत सी यादें अनदेखी हैं। लेकिन अब नहीं फिर किसी रोज.., बाद में, फुरसत में इनको खोलूंगी।

 फिलहाल तो  इन यादों को फिर से सहेज देती हूं। पता नहीं कब गम को मेरा पता मिल जाए, तब खुद इस पोटली को खोलूंगी और मुझे मालूम है तब जतन से सहेजी गई यह यादें ही मेरे दिल को खुशी देने और चेहरे पर मुस्कान लाने के काम आएंगी...।

  


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