फिल्में, डांस क्लास, गेम्स, पिकनिक्स, स्मार्ट बोर्ड पर पढ़ाई.....अब स्कूल जाने का मज़ा और है।

फिल्में... और क्लास में? 
रेन डांस... वो भी स्कूल में?
डांस क्लासेज का पीरियड....स्कूली छात्र-छात्राओं के लिए? 
बिना ब्लैक बोर्ड की पढ़ाई...,
 ऐसे टीचर्स भी होते हैं क्या जो पढ़ाई नहीं करने पर मारते नहीं हैं, सज़ा नहीं देते....?
 क्या! चिल्ड्रन्स डे पर टीचर्स भी बच्चों के लिए कार्यक्रम करते हैं?.....


सोचिए अगर आज से पंद्रह-बीस सालों पहले जब आप स्कूल जाया करते थे, आपने ऐसे प्रश्न पूछे होते और आपको सबके जवाब हां में मिलते तो खुशी के मारे आपका क्या हाल होता। क्या तब भी आप देर तक सोने का, या फिर तबीयत खराब होने का या फिर स्कूल में पढ़ाई ना होने का बहाना बनाकर स्कूल जाना टालते? क्या तब भी आप यह शिकायत करते कि स्कूल इतनी देर तक क्यों चलते हैं, या स्कूलों में इतनी कम छुट्टियां क्यों होती हैं?

मैं तो बिल्कुल नहीं टालती, बल्कि रोज़ सुबह स्कूल जाने के लिए उत्साहित रहती जैसा कि आज कल के बच्चे रहते हैं। जी हां, आजकल के बच्चे बहुत लकी हैं, जिनके लिए स्कूल जाने का मतलब सिर्फ सुबह सात बजे से दोपहर एक बजे तक एक के बाद एक लगने वाले बोरिंग पीरियड्स में सिर्फ पढ़ाई करना बिल्कुल नहीं हैं। जिन्हें मस्ती करने के लिए आधे घंटे के लंच ब्रेक का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। जो अपनी टीचर्स के डंडे से डरने की बजाय उनके दोस्तीपूर्ण व्यवहार से प्यार करते हैं और जिनके लिए स्कूल जाने का मतलब है बहुत कुछ नई चीज़े सीखना, यारों से मिलना और मज़ेदार तरीके से पढ़ाई करना।

हममें से अधिकतर लोग सरकारी स्कूलों के पक्षधर हैं, बहुत से लोग कहते हैं कि प्राइवेट पब्लिक स्कूलों में डोनेशन चलता है, बहुत खर्चा होता है और अनाप-शनाप फीस और पैसे लिये जाते हैं। सरकारी स्कूलों के खिलाफ मैं भी नहीं, डोनेशन से और अनाप-शनाप खर्चों से मुझे भी सख्त नफरत है, लेकिन एक सच यह भी है कि इन पब्लिक स्कूलों में पढ़ने और पढ़ाने, सीखने और सिखाने के तरीके इतने रोचक होते हैं कि बच्चों को इन्हें सीखने में मज़ा आता है और वो बेहद रचनात्मक तरीके से शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ बहुत से सामाजिक तौर-तरीके भी सीख लेते हैं। 

इसे प्रतिस्पर्धा का युग कहें, या एक दूसरे से खुद को बेहतर साबित करने की होड़ कि इन पब्लिक स्कूलों ने पढ़ाई के इतने रोचक तरीके ईजाद किए हैं, बच्चों को इतना कुछ सिखाने की तैयारियां की हैं, स्कूलों को इतना सुविधाजनक बनाया है कि बच्चे इन स्कूलों से भागते नहीं बल्कि प्यार करते हैं। 


पहले स्कूलों में मौज-मस्ती की बात सारे छात्र-छात्राओं के लिए इंटरवैल के खेलों, पी टी पीरियड और छुट्टी के बाद के थोड़े समय तक सीमित थी और कुछ चुनिंदा बच्चों के लिए स्पोर्ट्स डे, एनुअल फंक्शन की तैयारियों में निहित थी। लेकिन अब हर पीरियड फन का पीरियड है। खास तौर पर प्राइमरी क्लासेज के बच्चों के लिए तो इन स्कूलों में इतने रचनात्मक तरीके से पढ़ाई होती है कि बच्चों के लिए वो खेल की तरह ही हो जाती है। 

और शहरों के स्कूलों के बारे में तो मैं नहीं बता सकती लेकिन दिल्ली के स्कूलों में स्मार्ट बोर्ड पर पढ़ाई बहुत आम हो गई है जो ब्लैक बोर्ड पर पढ़ने से बिल्कुल अलग अनुभव है। इसमें बच्चे सिर्फ लिखा हुआ देखते नहीं हैं, बल्कि वीडियो पर उसे अनुभव भी करते हैं और इसका परिणाम यह होता है कि वो पढ़ा हुआ जल्दी सीख और समझ लेते हैं। 

किसी भी क्लासरूम में जाकर देखिए। वहां आपको बोरिंग काले सफेद सिद्धांतों के चार्ट नहीं मिलेंगे बल्कि बेहद रंगीन, सजे धजे एसाइनमेन्ट्स दिखेंगे। नर्सरी क्लासेज़ में तो बच्चों की पढ़ाई के लिए खास तौर पर कार्टून्स से सजी हुई दीवारें और रंग बिरंगी कुर्सिया-मेज़े दिखती है जिन पर पढ़ने का मज़ा ही कुछ और है। 


आज इन स्कूलों में बच्चे पौष्टिक भोजन करना भी सीख रहे हैं और डायनिंग टेबल पर बैठ कर खाना खाने के तौर-तरीके भी। कक्षा में पढ़ाई कर रहे हैं तो फिल्में भी देख रहे हैं, अनुशासन सीख रहे हैं तो डांस भी, पर्यावरण के बारे में पढ़ रहे हैं तो पार्क में पिकनिक्स पर जाकर पर्यावरण को देख और समझ भी रहे हैं, स्वीमिंग सीख रहे हैं तो रेन डांस का भी मज़ा ले रहे हैं। हर त्यौहार को भी स्कूल में मनाया जाता है जिससे बच्चे उसकी अहमियत समझ सकें। 

आज से दो दशकों पहले स्कूलों में ऐसा होता था कि बस आपको टीचर्स डे पर टीचर्स के लिए तोहफा लाना होता था और उनके लिए ही प्रोग्राम पेश करना होता था जबकि टीचर्स चिल्ड्रन्स डे पर बच्चों के लिए कुछ भी नहीं करते थे, लेकिन आज के स्कूलों में टीचर्स भी चिल्ड्रन्स डे पर बच्चों के लिए उतने ही उत्साह से तैयारी करते हैं जितना कि बच्चे उनके लिए करते हैं। मेरे बेटे के स्कूल में तो इस दिन बच्चों को टीचर बनने का मौका दिया जाता है। टीचर्स बच्चों के लिए डांस या स्किट करते हैं। 

सरकारी स्कूलों के बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकती लेकिन प्राइवेट स्कूलों में ऐसा बहुत कम होता है जब टीचर्स बच्चों को मारते हैं या सजा देते हैं बल्कि वो कई बार उनकी परेशानी को समझकर और अभिभावकों से बात करके उसका हल ढूंढने की कोशिश करते हैं। यहीं नहीं यह स्कूल कितने ही सामाजिक सरोकारों जैसे पर्यावरण रक्षा, सड़क सुरक्षा, रक्त दान आदि के बारे में बच्चों को अवगत कराने मे महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहे हैं। और यह काम यह स्कूल इसी तरह से फिल्में दिखा कर, स्किट करवाकर या वर्कशॉप आयोजित करके करते हैं जिनमें बच्चे सीखते भी हैं और आनंद भी लेते हैं। 

 और अंत में बस एक तमन्ना.. कि काश मुझे भी ऐसे ही स्कूल में पढ़ने का मौका मिला होता... :-) 


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