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Showing posts from October, 2013

सकारात्मक सोच, ऊंचे सपनों और बुलंद हौसलों का नाम है "मलाला"

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अब तक कई बार मलाला का नाम सुना था लेकिन कभी ठीक से जानने की कोशिश नहीं की कि क्यों मलाला युसुफज़ई इतनी मशहूर हो गई, क्यों दुनिया भर में लोग उसकी ज़िंदगी की दुआएं मांग रहे हैं और क्यों उसके नाम से पुरुस्कारों की घोषणा की जा रही हैं....  सिर्फ कुछ ऐसा ही पता था कि उसने तालिबानी हुक्म के खिलाफ लड़कियों के स्कूल जाने का अभियान चलाया था जिसके बाद तालिबानी आतंकियों ने उसे गोली मार दी और बहुत मुश्किल के बाद उसे बचाया जा सका। आज इत्तिफाक से सीएनएन पर उसका इंटरव्यू देखने को मिला। तब पहली बार सोलह साल की इस जीवट किशोरी को देखा, सुना तो जाना कि कौन और "क्या" है मलाला. ..। पहली बार जाना कि हिम्मत का उम्र से कोई वास्ता नहीं। हिम्मत कभी भी आ सकती है और कहीं भी आ सकती है। संगीनों और तालिबानी आतंक के साये में एक किशोरी के पढ़ने का जुनून जीत गया। गोली खाकर भी वो ज़िदा रही और आज मिसाल बनकर तमाम दुनिया को हिम्मत दे रही है। इस सोलह साल की लड़की के आत्मविश्वास से लबरेज चेहरे पर मुस्कान थी और वो हर सवाल का बहुत शांति, मुस्कुराहट और विश्वास के साथ जवाब दे रही थी। मलाला से जब पूछा गया कि क्

एक देसी दशहरा मेले की सैर...

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कितना वक्त हो गया आपको किसी मेले में गए हुए...? ..यहां मैं लायन्स क्लब या आरडब्ल्यूए, या मंदिर समिति या किसी समाजसेवी संस्था द्वारा आयोजित मेले में जाने की बात नहीं कर रही हूं जिनकी दिल्ली जैसे महानगरों में त्यौहार आते ही बाढ़ आ जाती है और जहां ब्रांडेड खाना, ब्रांडेड खिलौने, महंगे झूलों, स्टेज पर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सज संवर कर आए लोगों का हुजूम होता है....। यहां बात उन मेलों की हो रही है जिन्हें दिखाने के लिए बचपन में हम अपनी मम्मी-पापा से ज़िद किया करते थे और खूब भीड़-भाड़ वाले ऐसे मेलों में वो हमें ले जाते थे। वहां बहुत सी ऐसी चीज़े होती थी जो आज के सुसभ्य और सुसंस्कृत मेलों से गायब हो चुकी हैं। खैर कल मेरे बेटे की ज़िद पर हम लोग उसके स्कूल के रास्ते में लगने वाले ऐसे ही एक मेले में गए। और यकीन मानिए जब हम उस मेले में गए तो बहुत सी तो पुरानी यादें ताज़ा हो गई और बहुत सी चौंकाने वाली चीज़े भी दिखी... आदर्श रामलीला कमेटी द्वारा आयोजित इस दशहरा महोत्सव मेले का आयोजन पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में चांद सिनेमा के पास हर साल किया जाता है। यह मेला दिल्ली की एलीट

तब लोगों ने तंदूर का खाना तक खाना छोड़ दिया था...

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तब मैं शायद नाइन्थ में थी। आज भी याद है, मैं स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी कि अचानक पापा की तेज़ आवाज़ सुनाई दी..".हद हो गई यह तो। पत्नी को मारकर तंदूर में जला दिया...।" जब यह शब्द कानों में पड़े तो तुरंत पापा के पास आई। वो अमर उजाला का दूसरा पेज पढ़ रहे थे जिस पर पूरी खबर विस्तार से छपी थी। नैना साहनी, सुशील शर्मा और 'उस' तंदूर की फोटो छपी थी। जब पापा ने पेपर छोड़ा तब मैंने उस घटना को पूरा पढ़ा। पेपर में पूरी घटना विस्तार से ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के साथ छपी थी। उसमें लिखा था कि कांग्रेसी नेता ने अपनी पत्नी के टुकड़े करके अपने ही रेस्टोरेंट के तंदूर में जला दिए... इतना खतरनाक और वीभत्स हत्याकांड था यह जिसके बारे में इससे पहले ना तो मैंने कभी पढ़ा था और ना ही सुना था। जब मैं स्कूल पहुंची तब भी दो अध्यापिकाएं इसी के बारे में चर्चा कर रही थीं। तब चौबीस घंटे वाले बहुत सारे न्यूज़ चैनल्स नहीं होते थे सिर्फ दूरदर्शन पर रात को न्यूज़ आती थी इसलिए अधिकतर लोगों को सारी डिटेल्स अखबार पढ़कर ही पता चलती थी और इसके बावजूद यह खबर आग की तरह फैली थी। काफी दिनों तक यह खबर अ

वो आते हैं...

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- बेबी जी आप ऑपरेशन के लिए चली जाईए , क्यों बार बार नर्स को वापस भेज रही हैं ... ? - पहले मॉम को आने दो , उन्होंने प्रॉमिस किया था वो   ऑपरेशन से पहले मुझसे मिलने आएंगी। वो आएंगी तभी मैं ऑपरेशन के लिए जाऊंगी। रात से वेट कर रही हूं।   - लेकिन बेबी जी , आपके शरीर में सैप्टिक फैल सकता है , आपका ऑपरेशन होना ज़रूरी है। मालकिन को दिल्ली से आने में देर लग सकती है। मान जाईए बेबीजी , कहते हुए गोपाल काका की आंखे छलक आईं ... - कहा ना नहीं जाऊंगी , आज मम्मी को ही आना पड़ेगा , चाहे मैं मर जाऊं पर उनसे मिलने के बाद ही जाऊंगी। ... कहते हुए सिमरन ने मुंह फेर लिया। गोपाल काका रोते हुए बाहर आए। सामने से महेश बाबू आते दिख गए। " बाबूजी आप आ गए। बेबी जी से मिल लीजिए , उन्हें अब तो बताना ही पड़ेगा , वो ऑपरेशन के लिए नहीं जा रहीं ...." - लेकिन यह नहीं हो सकता गोपाल , सिमरन कमज़ोर है हम उसे नहीं बता सकते ... तभी रूम का दरवाज़ा खुला औ

रिश्ते

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"आज चाहे कुछ हो जाए, मैं बात नहीं करूंगी। हमेशा मैं ही क्यों शुरूआत करूं.. यह कोई बात है क्या..? राज अपनी गलती कभी नहीं मानते। मैं ही हमेशा क्यों झुकती रहूं। अब ऐसा नहीं होगा। मैं महीने भर तक बात नहीं करूंगी। पहले उनको मुझसे सॉरी कहना पड़ेगा। आज भी बिना बात ऐंठ दिखा रहे थे। मैं हर बार चुप रहती हूं ना, इसलिए। अब कि बार मैं भी दिखा दूंगी कि मुझे भी गुस्सा आता है। मेरे हाथ का खाना पसंद नहीं है ना, तीन दिन तक खाना नहीं दूंगी तो होश ठिकाने आ जाएगा..." सुबह ऑफिस जाते समय राज से हुई लड़ाई याद कर-करके सीमा का गुस्सा सातंवे आसमान पर था। सुबकते हुए सो गई। शाम 7 बजे--- ट्रिंग-ट्रिंग... सीमा गुस्से में भनभनाती हुई उठी " आ गए, अब सीधी सीधी बात करती हूं... ऐसे नहीं चलेगा"... दरवाज़ा खोला.. सामने राज खड़े थे। आंखे चार हुई। राज मुस्कुराए.. पिक्चर देखने चलोगी क्या? और सीमा का सारा गुस्सा काफूर... पहले खाना खा लो फिर चलते हैं...

नज़रिया

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सीन-1- त्रिपाठी जी का घर -चलो जल्दी तैयार हो जाओ। डॉक्टर साहब को वेट कराना अच्छा नहीं लगता।  -उनके लिए क्या ले चलें? केले ठीक रहेंगे...? -अरे क्या बात करती हो। केले जैसे सस्ते फल ले जाना अच्छा लगता है क्या इतने बड़े आदमी के घर। सेब और अंगूर लेलो और एक किलो मिठाई भी ले लेना। दोस्त अब बड़ा आदमी हो गया है, उसके घर ढंग से जाएंगे।  (दो महीने बाद) सीन-2 डॉक्टर साहब का घर -इतनी जल्दी क्यों तैयार हो गए? आराम से चलेंगे। और उनके लिए केले ले लेना वो हमेशा कुछ ना कुछ लेकर आते हैं। हम खाली हाथ जाएंगे तो अच्छा नहीं लगेगा। -लेकिन केले, अच्छे लगेंगे क्या। कोई ढंग के फल या मिठाई ले लेते हैं। फिर आपके इतने पुराने दोस्त से होली मिलने जा रहे हैं। -ठीक है यार। इतना मत सोचो। ऐसी कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं है वो। उसके घर जा रहे हैं यहीं कम हैं क्या।

यथार्थ....

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-श्यामली याद है, अरे वो कॉलेज की मोस्ट स्टायलिश गर्ल...। -श्यामली...(नाम लेते ही पीयूष के दिमाग में कॉलेज की तस्वीर ताज़ा हो गई। श्यामली- सांचे में ढला फिगर, लंबे, घने बाल, बड़ी- बड़ी आंखे, खूबसूरत मुस्कान... सभी उसको पसंद करते थे। वो खुद भी उससे शादी करना चाहता था, पर वो कह भी नहीं पाया और ग्रेजूएशन के तुरंत बाद उसकी शादी हो गई)... हां हां याद है। बिल्कुल याद है।  -इन पांच सालों में दुनिया बदल गई उसकी। डेढ़ साल में एक्सीडेंट में हसबेंड की डेथ हो गई। ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। चार साल से छोटी-मोटी नौकरियां करके खुद और अपने बेटे को पाल रही है। तुम तो बड़े ओहदे पर हो, उसकी कहीं नौकरी लगवा दो... -हां हां क्यों नहीं, मेरी ही सेक्रेटरी की जगह खाली है। तन्ख्वाह भी अच्छी मिलेगी। कल बुला लो उसे।  (दूसरे दिन श्यामली से मिलने की खुशी में पीयूष जल्दी ऑफिस पहुंच गया।)  बारह बजे श्यामली आई। पांच सालों में काफी मोटी हो चुकी थी। पति के गुज़रने के बाद रोज़ी रोटी कमाने की फिक्र में लगी श्यामली के चेहरे पर समय से पहले झुर्रिया दिखने लगी थी। खूबसूरत हंसी की जगह उदासी भरी फीकी मुस्कान ने