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Showing posts from 2013

भिखारी भी हैं ट्रेडिंग के धंधे में... भीख के पैसों से होती है ऊपरी कमाई

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यह तस्वीर दिल्ली के प्रगति मैदान के पास स्थित दिल्ली के प्रसिद्ध भैंरो मन्दिर से ली गई है। इसे ज़रा गौर से देखिए क्या हो रहा है इसमें। यह काली जैकेट वाला आदमी यहां की पार्किंग का ठेकेदार है और मन्दिर के द्वार पर बैठी यह महिलाए उसके साथ खुले पैसों की ट्रेडिंग कर रही हैं.... दरअसल भिखारियों के पास खुले पैसे या सिक्कों की भरमार होती है। जो भी इन्हें दान में कुछ देता है वो सिक्के या एक, दो या पांच रुपए के नोट होते हैं जिनकी और लोगों को काफी ज़रूरत होती है।  इसलिए ये लोग भिखारियों को एक या दो रुपए ज्यादा देकर उनसे खुले सिक्के ले लेते हैं। मसलन दस रुपए का नोट देकर एक-एक रुपए के नौ सिक्के लिए जा सकते हैं या फिर बीस-बीस के नोट देकर खुले अट्ठारह या उन्नीस रुपए लिए जा सकते हैं। है तो यह छोटी सी ही ट्रेडिंग, लेकिन इससे इन भिखारियों को थोड़ा फायदा मिल जाता है।    यह शहजाद है जो भैंरो मन्दिर के बाहर ही भीख मांगते हैं। इन्होंने बताया कि मन्दिर के बाहर बैठने के कारण यहां उन्हें शाम तक सौ-सवा सौ रुपए की खेरीज मिल जाती है और अगर खुले पैसों की किसी को ज़रूरत होती है तो वो

पहचानिए यह कारीगरी किस चीज़ पर की गई है...

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क्या आप जानते हैं कि शतरंज के ये खूबसूरत मोहरे किस चीज़ के बने हैं....? अब इन नक्काशीदार कटारों को देखिए। यह भी उसी से बने हैं जिससे शतरंज के मोहरे बने हैं। सोचिए क्या है यह... अब इन्हें देखिए यह की चेन्स, जूड़ा पिन्स, कटारें सबकुछ उसी चीज़ से बने हुए हैं लेकिन आप अब तक नहीं पहचान पाए ना क्या है यह... अब देखिए इन सफेद चीज़ों के टुकड़ों को। इन्हीं से बनी हैं यह सारी चीज़े, यह ज्वेलरी भी। क्या यह सेलम है, संगमरमर, खड़िया या कुछ और? चलिए बताते हैं... यह ऊंट की हड्डियां हैं, "केमल बोन्स"। जी हां ऊपर दिखाई गई सारी चीज़े केमल बोन्स से बनी हैं। कुछ साल पहले हाथी दांत की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तब से अधिकतर कलाकार केमल बोन्स से चीज़े बनाने लगे हैं।  केमल बोन्स हाथी दांत की तरफ दूधिया सफेद नहीं होते इसलिए पहले उन्हें पहले मनचाहे आकार में काटकर संगमरमर के पाउडर के साथ उबाला जाता है ताकि इसे साफ सफेद रंग मिल सके। इसके बाद बोन को हाइड्रोक्सल और पानी से साफ करके इस पर पॉलिश की जाती है जिसके बाद ये कारीगरी के काबिल बनता है।

फिल्में, डांस क्लास, गेम्स, पिकनिक्स, स्मार्ट बोर्ड पर पढ़ाई.....अब स्कूल जाने का मज़ा और है।

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फिल्में... और क्लास में?  रेन डांस... वो भी स्कूल में? डांस क्लासेज का पीरियड....स्कूली छात्र-छात्राओं के लिए?  बिना ब्लैक बोर्ड की पढ़ाई...,  ऐसे टीचर्स भी होते हैं क्या जो पढ़ाई नहीं करने पर मारते नहीं हैं, सज़ा नहीं देते....?  क्या! चिल्ड्रन्स डे पर टीचर्स भी बच्चों के लिए कार्यक्रम करते हैं?..... सोचिए अगर आज से पंद्रह-बीस सालों पहले जब आप स्कूल जाया करते थे, आपने ऐसे प्रश्न पूछे होते और आपको सबके जवाब हां में मिलते तो खुशी के मारे आपका क्या हाल होता। क्या तब भी आप देर तक सोने का, या फिर तबीयत खराब होने का या फिर स्कूल में पढ़ाई ना होने का बहाना बनाकर स्कूल जाना टालते? क्या तब भी आप यह शिकायत करते कि स्कूल इतनी देर तक क्यों चलते हैं, या स्कूलों में इतनी कम छुट्टियां क्यों होती हैं? मैं तो बिल्कुल नहीं टालती, बल्कि रोज़ सुबह स्कूल जाने के लिए उत्साहित रहती जैसा कि आज कल के बच्चे रहते हैं। जी हां, आजकल के बच्चे बहुत लकी हैं, जिनके लिए स्कूल जाने का मतलब सिर्फ सुबह सात बजे से दोपहर एक बजे तक एक के बाद एक लगने वाले बोरिंग पीरियड्स में सिर्फ पढ़ाई करना बिल्कुल नही

कच्ची मिट्टी या बीच का बिच्छू... , ... कुट्टी और पुच्ची..

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जितने मज़ेदार हुआ करते थे बचपन के खेल उतनी ही मज़ेदार थी बचपन के खेलों की शब्दावली। तब यारी-दुश्मनी निभाने, कमज़ोर खिलाड़ी या पक्के खिलाड़ी का पता लगाने और डैन चुनने के लिए मजेदार इशारे, खेल और शब्दावली हुआ करती थी। आईए इनको भी याद कर लें..... पुकाई -  हर खेल में डैन का फैसला पुकाई से हुआ करता था। पुकाई यानि सभी खिलाड़ियों द्वारा एक के ऊपर एक हाथ रखकर हाथों को उल्टा या सीधा खोलना। असमान हाथ लाने वाले को बाहर कर दिया जाता था। इस तरह पुकाई तब तक चलती रहती थी जब तक कोई एक बचा ना रह जाए। जो अंत में बचता था वहीं डैन होता था। कच्ची मिट्टी- कच्ची मिट्टी यानि कमज़ोर खिलाड़ी। जैसा कि अक्सर होता है जब बड़े बच्चे खेल रहे होते थे और उनमें से किसी का छोटा भाई बहन खेलने की ज़िद करता था, तो बड़े बच्चे उसका दिल रखने के लिए उसे खिलाने को तैयार तो हो जाते थे लेकिन उसे कच्ची मिट्टी करार कर दिया जाता था। यानि उसका आउट होना आउट होना नहीं माना जाएगा, वो डैन नहीं बनेगा... जैसी सुविधाएं उसके लिए होती थी। बीच का बिच्छू- किसी कमज़ोर या बेहद मज़बूत खिलाड़ी को बीच का बिच्छू बनाया जाता था। मतलब वह खिल

कहां गया ऊंच-नीच का पापड़ा, इक्कड़ दुक्कड़ की गोटी और पिट्ठू तोड़ने वाली गेंद... "एक शब्दकृति बचपन के खेलों के नाम"

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कम्प्यूटर गेम्स और वीडियो गेम्स के इस ज़माने में हमारे बच्चों को शायद वो खेल कभी खेलने को ना मिलेंजिन्हें कभी हम सभी बचपन में खेला करते थे और जो धीरे-धीरे गायब होने लगे हैं। तब हमारे पास आज के बच्चों जैसी टीवी और कम्प्यूटर की सुविधा नहीं थी और ना ही रिमोट वाले अनगिनत खेल। सो जब चाहा, अपने दोस्तों के साथ इकट्ठा हुए और किसी के भी घर के सामने, पेड़ की छांव तले, आंगन में, पार्क में या बगीचों में यह खेल खेल लिए। यह मज़ेदार इनडोर और आउटडोर खेल बहुत रचनात्मक होते थे और इनको खेलने के लिए चाहिए होते थे चार-पांच दोस्त या सहेलियां, खुला मैदान या घर की छत और सामान के रूप में पत्थर की गिट्टियां, गेंदे, डंडे, कंचे, कागज़- पैंसिल या खड़िया जैसी साधारण सी चीज़े। आज ऐसे ही कुछ खेलों को याद करते हैं जिनके साथ हमारे बचपन की प्यारी यादें जुड़ी है और जिन्हें खेलने का सौभाग्य शायद हम अपने बच्चों को ना दे पाएं... ऊंच-नीच का पापड़ा यह खेल ऐसी जगह खेला जाता था जहां सीढ़ियां या पत्थर या कोई भी ज़मीन से थोड़ी ऊंची जगह मौजूद हो। नीची जगह को 'नीच' और ऊंची जगह को 'ऊंच' कहते थे। पुकाई मे

डोन्ट अन्डरएस्टीमेट द पावर ऑफ अ कॉमन मेन....

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"डोन्ट अन्डरएस्टीमेट द पावर ऑफ अ कॉमन मेन..." फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस का यह डायलॉग आज पूरी तरह से प्रासंगिक हो गया है। कल तक जिस कॉमन मेन पर ना तो जनता विश्वास दिखा रही थी, ना कोई चैनल जिसे भाव दे रहा था और ना ही जिसे बीजेपी या कांग्रेस के नेता अपने बराबर खड़े होने लायक मान रहे थे, आज उस कॉमन मेन ने एक वार में सबको चित्त कर दिया।  कल तक केजरीवाल को सड़क की पार्टी कहने वाले कांग्रेसी नेता मुंह छिपाते फिर रहे हैं। सालों से जीतते आ रहे दिग्गज नेता आम चेहरों से हारने के बाद सद्मे में हैं।  आप को सिर्फ 6 सीटें मिलने की भविष्यवाणी करने वाले चैनलों और अखबारों में आज कुछ इस तरह की हैडलाइन्स हैं...बीजेपी विनर, कांग्रेस ज़ीरो, आप हीरो.., केजरीवाल ने झाड़ू फिराई.., हर तरफ आप ही आप... , कांग्रेस साफ, भाजपा खिली, आगे आप... । कल तक केजरीवाल को भाव ना देने वाले चैनल्स आज आप उम्मीदवारों की प्रतिक्रिया जानने को माइक और कैमरा लेकर उनके आगे-पीछे घूम रहे हैं। और तो और, जनता को भी विश्वास नहीं हो रहा है कि आप ने इतना जबरदस्त धमाका कर दिया है। हर पान की दुकान और चाय की टपरी पर सिर्फ आप की जी

कुछ यादें आज पोटली से निकल पड़ी हैं...

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हर इंसान के पास एक यादों की पोटली होती है जिसमें बहुत ही सहेज कर, एक के ऊपर एक तह करके रखी जाती है यादें। खूबसूरत या बदसूरत, दोनों की ही शक्ल में इस पोटली में मज़बूती से बंद यादों को बड़ी तरतीब से मैंने भी रख रखा है, लेकिन परेशानी यह है कि यह पोटली कभी मेरे खोले नहीं खुलती...।  इसको रखने पर तो मेरा बस है लेकिन खोलने पर बिल्कुल नहीं।  कभी कहीं पार्क में बच्चों को झूलता देखकर तो कभी कुछ लोगों को चाट की ठेल पर हंसी मज़ाक करते हुए गोलगप्पे खाते देख या फिर कभी बाज़ार से सामान लेकर लौटते हुए- स्कूल की दो सहेलियों को बतियाते हुए अपनी-अपनी साइकिलों पर जाते देखकर और या फिर कभी- कभी यूं ही खाली बैठे, इन यादों की पोटली खुल जाती है और इसमें से भरभराकर गिरने लगती हैं यादें.....।  बातरतीब रखी यादें इतने बेतरतीब तरीके से छितर कर गिरती है... पट, पट, पट.. एक के ऊपर एक.., कि बस समझ ही नहीं आता किसे सहेजे, किसे जाने दें.. और कैसे इन्हें फिर से साफ सुथरे तरीके से झाड़ पौंछ कर वापस जमाएं....। दिसंबर की इस गुनगुनी दोपहर में यूंही बाहर खिली धूप को ताकते हुए आज यह पोटली फिर से खुल गई, और मेरे सामने म

विशुद्ध ऊर्जा का रूप हैं विचार... और सोच पर टिकी हैं खुशियां....?

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क्या हम खुद अपने भाग्य के निर्धारक हैं? क्या खुश रहना या दुखी रहना पूरी तरह से हमारे हाथ में है? क्या परिस्थितियों का इसमें कोई हाथ नहीं? क्या हम चाहे तो सिर्फ अच्छी सोच रखकर विपरीत परिस्थितियों को अपनी ओर कर सकते हैं और खुश रह सकते हैं.....? कुछ समय पहले जब मैं काफी तनाव से गुज़र रही थी, मेरी एक दोस्त ने मुझे एक प्रसिद्ध किताब के बारे में बताया.."सीक्रेट्स"... और उसे पढ़ने के लिए कहा। किताब तो खैर मैं नहीं पढ़ पाई लेकिन उस किताब के बारे में काफी कुछ पढ़ा और जो वो किताब कहती है काफी हद तो वो मेरे समझ में आ गया। जब मैंने उसके बारे में सोचा तो मुझे काफी बाते सही लगी। मैंने जाना कि दरअसल हम ही अपनी खुशी और दुख के ज़िम्मेदार हैं। और जो हम इस दुनिया को देते हैं हमें वहीं वापस मिलता है.....। इन निष्कर्षों से पहले मैं यह बताना चाहती हूं कि उस किताब के ज़रिए क्या बातें मैंने जानी और समझी... 1. हमारी सोच दरअसल विशुद्ध ऊर्जा होती है। जो कुछ भी हम सोचते हैं वो मन के द्वारा निस्तारित ऊर्जा का रुप होता है जो हमारे द्वारा इस यूनिवर्स में पहुंचती है। अगर हम कुछ अच्छा सोचते हैं तो पॉ

सकारात्मक सोच, ऊंचे सपनों और बुलंद हौसलों का नाम है "मलाला"

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अब तक कई बार मलाला का नाम सुना था लेकिन कभी ठीक से जानने की कोशिश नहीं की कि क्यों मलाला युसुफज़ई इतनी मशहूर हो गई, क्यों दुनिया भर में लोग उसकी ज़िंदगी की दुआएं मांग रहे हैं और क्यों उसके नाम से पुरुस्कारों की घोषणा की जा रही हैं....  सिर्फ कुछ ऐसा ही पता था कि उसने तालिबानी हुक्म के खिलाफ लड़कियों के स्कूल जाने का अभियान चलाया था जिसके बाद तालिबानी आतंकियों ने उसे गोली मार दी और बहुत मुश्किल के बाद उसे बचाया जा सका। आज इत्तिफाक से सीएनएन पर उसका इंटरव्यू देखने को मिला। तब पहली बार सोलह साल की इस जीवट किशोरी को देखा, सुना तो जाना कि कौन और "क्या" है मलाला. ..। पहली बार जाना कि हिम्मत का उम्र से कोई वास्ता नहीं। हिम्मत कभी भी आ सकती है और कहीं भी आ सकती है। संगीनों और तालिबानी आतंक के साये में एक किशोरी के पढ़ने का जुनून जीत गया। गोली खाकर भी वो ज़िदा रही और आज मिसाल बनकर तमाम दुनिया को हिम्मत दे रही है। इस सोलह साल की लड़की के आत्मविश्वास से लबरेज चेहरे पर मुस्कान थी और वो हर सवाल का बहुत शांति, मुस्कुराहट और विश्वास के साथ जवाब दे रही थी। मलाला से जब पूछा गया कि क्

एक देसी दशहरा मेले की सैर...

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कितना वक्त हो गया आपको किसी मेले में गए हुए...? ..यहां मैं लायन्स क्लब या आरडब्ल्यूए, या मंदिर समिति या किसी समाजसेवी संस्था द्वारा आयोजित मेले में जाने की बात नहीं कर रही हूं जिनकी दिल्ली जैसे महानगरों में त्यौहार आते ही बाढ़ आ जाती है और जहां ब्रांडेड खाना, ब्रांडेड खिलौने, महंगे झूलों, स्टेज पर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सज संवर कर आए लोगों का हुजूम होता है....। यहां बात उन मेलों की हो रही है जिन्हें दिखाने के लिए बचपन में हम अपनी मम्मी-पापा से ज़िद किया करते थे और खूब भीड़-भाड़ वाले ऐसे मेलों में वो हमें ले जाते थे। वहां बहुत सी ऐसी चीज़े होती थी जो आज के सुसभ्य और सुसंस्कृत मेलों से गायब हो चुकी हैं। खैर कल मेरे बेटे की ज़िद पर हम लोग उसके स्कूल के रास्ते में लगने वाले ऐसे ही एक मेले में गए। और यकीन मानिए जब हम उस मेले में गए तो बहुत सी तो पुरानी यादें ताज़ा हो गई और बहुत सी चौंकाने वाली चीज़े भी दिखी... आदर्श रामलीला कमेटी द्वारा आयोजित इस दशहरा महोत्सव मेले का आयोजन पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में चांद सिनेमा के पास हर साल किया जाता है। यह मेला दिल्ली की एलीट

तब लोगों ने तंदूर का खाना तक खाना छोड़ दिया था...

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तब मैं शायद नाइन्थ में थी। आज भी याद है, मैं स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी कि अचानक पापा की तेज़ आवाज़ सुनाई दी..".हद हो गई यह तो। पत्नी को मारकर तंदूर में जला दिया...।" जब यह शब्द कानों में पड़े तो तुरंत पापा के पास आई। वो अमर उजाला का दूसरा पेज पढ़ रहे थे जिस पर पूरी खबर विस्तार से छपी थी। नैना साहनी, सुशील शर्मा और 'उस' तंदूर की फोटो छपी थी। जब पापा ने पेपर छोड़ा तब मैंने उस घटना को पूरा पढ़ा। पेपर में पूरी घटना विस्तार से ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के साथ छपी थी। उसमें लिखा था कि कांग्रेसी नेता ने अपनी पत्नी के टुकड़े करके अपने ही रेस्टोरेंट के तंदूर में जला दिए... इतना खतरनाक और वीभत्स हत्याकांड था यह जिसके बारे में इससे पहले ना तो मैंने कभी पढ़ा था और ना ही सुना था। जब मैं स्कूल पहुंची तब भी दो अध्यापिकाएं इसी के बारे में चर्चा कर रही थीं। तब चौबीस घंटे वाले बहुत सारे न्यूज़ चैनल्स नहीं होते थे सिर्फ दूरदर्शन पर रात को न्यूज़ आती थी इसलिए अधिकतर लोगों को सारी डिटेल्स अखबार पढ़कर ही पता चलती थी और इसके बावजूद यह खबर आग की तरह फैली थी। काफी दिनों तक यह खबर अ

वो आते हैं...

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- बेबी जी आप ऑपरेशन के लिए चली जाईए , क्यों बार बार नर्स को वापस भेज रही हैं ... ? - पहले मॉम को आने दो , उन्होंने प्रॉमिस किया था वो   ऑपरेशन से पहले मुझसे मिलने आएंगी। वो आएंगी तभी मैं ऑपरेशन के लिए जाऊंगी। रात से वेट कर रही हूं।   - लेकिन बेबी जी , आपके शरीर में सैप्टिक फैल सकता है , आपका ऑपरेशन होना ज़रूरी है। मालकिन को दिल्ली से आने में देर लग सकती है। मान जाईए बेबीजी , कहते हुए गोपाल काका की आंखे छलक आईं ... - कहा ना नहीं जाऊंगी , आज मम्मी को ही आना पड़ेगा , चाहे मैं मर जाऊं पर उनसे मिलने के बाद ही जाऊंगी। ... कहते हुए सिमरन ने मुंह फेर लिया। गोपाल काका रोते हुए बाहर आए। सामने से महेश बाबू आते दिख गए। " बाबूजी आप आ गए। बेबी जी से मिल लीजिए , उन्हें अब तो बताना ही पड़ेगा , वो ऑपरेशन के लिए नहीं जा रहीं ...." - लेकिन यह नहीं हो सकता गोपाल , सिमरन कमज़ोर है हम उसे नहीं बता सकते ... तभी रूम का दरवाज़ा खुला औ